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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : ८५ विद्यानन्दी का कहना है कि सांख्यों ने आत्मा को अज्ञान स्वरूप सिद्ध करने में जो हेतु दिया है वह ठीक नहीं है । क्योंकि जिस उसी प्रकार वह अचेतन सांख्य दर्शन आत्मा को के बाहर भी रहता है । प्रकार आत्मा को अज्ञान भी सिद्ध हो जाएगा, जो व्यापक मानता है, जिसका अतः जिस प्रकार शरीर के उसी प्रकार शरीरस्थ आत्मा भी अचेतन है, क्योंकि शरीर के बाहर स्थित आत्मा और शरीर के अन्दर स्थित आत्मा में कोई अन्तर नहीं है । इस प्रकार आत्मा को अज्ञान स्वरूप सिद्ध करने से आत्मा जड़स्वरूप सिद्ध हो जाएगा । " स्वरूप सिद्ध किया गया है सांख्यों को मान्य नहीं है । तात्पर्य है कि आत्मा शरीर बाहर आत्मा अचेतन है, सुषुप्त अवस्था में ज्ञान का अनुभव होता है : सांख्य दार्शनिकों का यह कथन कि सुषुप्ति अवस्था में मनुष्य को ज्ञान का अनुभव नहीं होता है, ठीक नहीं है, क्योंकि निद्रावस्था से उठने के बाद 'मैं बहुत देर तक सोया, सुखपूर्वक सोया' आदि का स्मरण होता है । इस स्मरण से सिद्ध है कि गाढ़ निद्रा में ज्ञान विद्यमान रहता है । अतः आत्मा ज्ञानस्वरूप है । दूसरी IF यह है कि यदि सांख्य दार्शनिक सुषुप्ति दशा में ज्ञान की सत्ता आत्मा में नहीं मानेंगे तो सुषुप्ति अवस्था में चैतन्य की सत्ता भी सिद्ध नहीं हो सकेगी । क्योंकि ज्ञान सुख का संवेदन करना ही चैतन्य कहलाता है । यदि सांख्य सुषुप्ति अवस्था में प्राण, वायु, नाड़ी आदि के चलने से आत्मा में चैतन्य का विद्यमान होना मानते हैं तो इस प्रकार से ज्ञान आत्मा का स्वभाव ही सिद्ध हो जाता है । श्वासोच्छ्वास चलना, नेत्र खोलना आदि क्रियाएँ जिस प्रकार जागृत अवस्था में चैतन्य के होने पर होती हैं, उसी प्रकार ज्ञान के होने पर होती हैं । अतः आत्मा जिस प्रकार चैतन्य स्वरूप है उसी प्रकार ज्ञान स्वरूप भी है । १. जीवो ह्यचेतनः काये जीवत्वाद् बाह्यदेशवत् । वक्तुमेवं समर्थोऽन्यः किं न स्याज्जडजीववाक् ।। - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १।२३१ । २. वही, १।२३५ । ३. यथा चैतन्यसंसिद्धिः सुषुप्तावपि देहिनः । प्राणादिदर्शनात्तद्वद्बोधादिः किं न सिद्ध्यति ॥ - वही, ११२३६ ॥ ४. जाग्रतः सति चैतन्ये यथा प्राणादिवृत्तयः । तथैव सति विज्ञाने दृष्टास्ता बाघवर्जिताः । Jain Education International वही, १।२३७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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