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८६ : जैनदर्शन में आत्म- विचार
क्योंकि ज्ञान कथन भी ठीक
यदि सांख्य आत्मा को इसलिए ज्ञानस्वरूप नहीं मानते हैं रूपादि की तरह अचेतन, कार्य तथा क्षणिक है, तो उनका यह नहीं है अन्यथा आत्मा भोगस्वरूप भी सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि भोग भी कदाचित् कभी-कभी होने वाला है । 'पुरुष' ( आत्मा ) बुद्धि के अध्यवसाय पूर्वक ही उपभोग करता है । यदि ऐसा न माना जाए तो आत्मा सर्वदर्शी और सर्वभोक्ता हो जाएगा, और ऐसा मानने से दीक्षा, तपस्या, तत्त्वज्ञानादि व्यर्थ हो जाएंगे । अतः सिद्ध है कि आत्मा चैतन्य तथा ज्ञानस्वरूप है । '
बुद्धि अचेतन नहीं है
सांख्य दार्शनिक बुद्धि को अचेतन मानते हैं किन्तु उनका यह मन्तव्य भी ठीक नहीं है क्योंकि अचेतन बुद्धि सुख-दुःखादि ज्ञ ेय पदार्थों का ज्ञान नहीं कर सकती है । चैतन्य शक्ति के सम्पर्क से कोई भी जड़ पदार्थ चैतन्य स्वरूप नहीं हो सकता है अन्यथा दर्पण भी चैतन्यादि स्वभाव वाला हो जाएगा, जो असम्भव है । दूसरी बात यह है कि चेतना का आरोप अचेतन बुद्धि में करने पर भी अचेतन बुद्धि द्वारा ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता है । अतः बुद्धि को अचेतन मान कर ज्ञान को उसका धर्म मानना ठीक नहीं है । र ज्ञान आत्मा का स्वभाव है यह सिद्ध हो जाता है ।
आत्मा का स्व पर प्रकाश
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भारतीय दर्शन में आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण विवादों में से एक आत्मा के स्व पर प्रकाशी स्वभाव से सम्बद्ध है । इस समस्यां का अत्यधिक दार्शनिक महत्त्व है । श्रुति एवं आगम कालीन साहित्य में ज्ञान और आत्मा को स्व पर प्रकाशक मानने के बीज पाये जाते हैं । इसके अतिरिक्त छन्दोग्य तथा बृहदारण्यक में आत्मा को 'हृदयान रज्योति' ' भारूप' कहा गया है ।" गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि 'जिस प्रकार सूर्य समस्त संसार को प्रकाशित करता है उसी तरह शरीर क्षेत्र का ज्ञाता आत्मा भी सम्पूर्ण शरीर को प्रकाशित करता है । इसी प्रकार गीता में आत्मा स्व प्रकाश स्वरूप परिलक्षित होता है । इन विचारों का स्पष्टीकरण तथा विश्लेषण तर्क
१. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १।२४३-२४४ ।
२. स्याद्वादमंजरी, १५ ।
३. वही, १४० ।।
४. कठोपनिषद्, २२।१५ ।
५. (क) बृहदारण्यक उपनिषद्, ४।३।७ । (ख) छान्दोग्य उपनिषद्, ३।१४।२ ।
६. गीता, १३।३३ ॥
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