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________________ ... आत्म-स्वरूप-विमर्श : ८७ युग में हुआ है । अद्वैत तथा विशिष्टाद्वैत आदि वेदान्त, सांख्य-योग, बौद्ध इनके मतानुसार आत्मा स्व-प्रत्यक्ष (स्व-प्रकाश) स्वरूप है। कुमारिल भट्ट ने ज्ञान को परोक्ष मानकर भी आत्मा को वेदान्त की तरह स्व-प्रकाश स्वरूप माना है । ऐसा प्रतीत होता है कि कुमारिल के लिए श्रुतियों का विरोध, जिसमें आत्मा को स्व-प्रकाश रूप कहा गया है, करना सम्भव नहीं था। मीमांसक-दार्शनिक प्रभाकर और उनके मतानुयायी आत्मा को स्व-प्रकाशक नहीं मानते हैं । न्याय वैशेषिक दर्शन में योगज प्रत्यक्ष से आत्मा का प्रत्यक्ष मान कर उसे पर-प्रत्यक्ष माना गया है। अग्दिर्शी की अपेक्षा ज्ञानान्तर-वेद्य ज्ञानवादी होने के कारण प्राचीन न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों ने आत्मा का पर-प्रत्यक्ष ही माना है किन्तु बाद के दार्शनिक उद्योतकर आदि ने आत्मा को मानस प्रत्यक्ष का विषय मान कर उसका स्व-प्रत्यक्ष माना है । __जैन दार्शनिक आत्मा को स्व-पर प्रत्यक्ष मानते हैं। इस विषय में इन दार्शनिकों का मत है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है इसलिए आत्मा भी स्व-पर प्रकाशक है। इस दर्शन में कहा गया है कि जिस प्रकार सूर्य या दीपक अपने आपको प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं तथा पर-पदार्थों को प्रकाशित करता है।' आचार्य कुन्दकुन्द प्रथम जैन आचार्य हैं जिसने ज्ञान को सर्वप्रथम स्व-पर प्रकाशक मान कर इस चर्चा का जैन दर्शन में सूत्रपात किया है। बाद के आचार्यों ने इनके मन्तव्य का एक स्वर से अनुकरण किया । __ आत्म-बहुत्व : न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और मीमांसा दर्शनों की भांति जैन दर्शन में भी अनेक आत्माओं की कल्पना की गयी है। उमास्वामी के तत्त्वार्थ सूत्र में आये हुए 'जीवाश्च'३ सूत्र की व्याख्या करते हुए अकलंक देव ने कहा है कि जीव अनेक प्रकार के होते हैं। गति आदि चौदह मार्गणा, मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों के भेद से आत्मा अनेक पर्यायों को धारण करने के कारण अनेक है । इसी प्रकार मुक्त जीव भी अनेक हैं। जैन दार्शनिक अपरिमित और असीम आत्माओं को मान कर प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न आत्मा मानते १. पंचाध्यायी (पूर्वाध), कारिका ५४१ । पंचाध्यायी (उत्तरार्ष), कारिका ३९१ एवं ८३७ । २. नियमसार, १६६-१७२ । और भी देखें इन्हीं गाथाओं की मुनि पद्मप्रभ मल्लधारी देव की तात्पर्य टीका।.. ३. तत्त्वार्थ सूत्र, ५।३। ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ५।३।३। ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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