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८८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
हैं । पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर सिद्धों पर्यन्त सभी की अलग-अलग आत्माएँ हैं । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि एक शरीर में एक से अधिक आत्माएँ रह सकती हैं किन्तु एक आत्मा अनेक शरीरों में नहीं रह सकती है । आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ' ने जीव की अनेकता सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क दिये हैं । उन्होंने कहा कि नारकादि पर्यायों में आकाश की भाँति एक आत्मा सम्भव नहीं है क्योंकि आकाश के एकत्व का अनुभव होता है किन्तु जीव के एकत्व का अनुभव नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि प्रत्येक पिण्ड में जीव विलक्षण है, इसलिए भी उसे एक नहीं माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि जीव अनेक हैं क्योंकि उनमें लक्षण-भेद हैं, जैसे विविध घट | अनेक नहीं होने वाली वस्तु में लक्षण-भेद नहीं होता है, जैसे आकाश । एक आत्मा मानने से सुख, दुःख, बन्ध और मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं हो सकती है । एक ही आत्मा एक ही समय में सुखी दुःखी, बद्ध - मुक्त नहीं हो सकती है । अतः आत्मा एक नहीं, अनेक हैं ।
दार्शनिक भी करने के लिए
पुरुष के जन्म
सांख्य दर्शन में आत्म- बहुत्व : १. जैन दर्शन की भाँति सांख्य आत्म- बहुत्व मानते हैं । ईश्वरकृष्ण ने आत्मा की अनेकता सिद्ध महत्त्वपूर्ण युक्तियां दी हैं । सांख्यकारिका में कहा है कि प्रत्येक मरण एक ही तरह के न होकर विभिन्न होते हैं । एक का जन्म होता है, दूसरे का मरण होता है । यदि एक ही आत्मा होती तो एक के उत्पन्न होने से सबकी उत्पत्ति और एक के मरण से सबका मरण होना मानना पड़ता जो असंगत है । अतः सिद्ध है कि आत्माएँ अनेक हैं ।
२. इसी प्रकार प्रत्येक पुरुष की इन्द्रियां अलग-अलग हैं । कोई बहरा है, कोई अन्धा है और कोई ठूला है आदि । एक आत्मा होने पर पुरुषों की इन्द्रियों में विभिन्नता नहीं होती । एक आत्मा होती तो एक पुरुष के अन्धे होने पर सबको अन्धा होना पड़ता किन्तु ऐसा नहीं होता है, इसलिए सिद्ध है कि आत्माएँ अनेक हैं ।
३. समस्त पुरुषों की प्रवृत्तियों के भिन्न-भिन्न होने से भी आत्माएँ अनेक सिद्ध होती हैं ।
४. विभिन्न पुरुषों में सत्त्व- रज और तम इन गुणों में न्यूनाधिक होने से भी आत्मा की अनेकता सिद्ध होती है ।
१. विशेषावश्यक भाष्य, १५८१, १५८२ ।
२. (क) सांख्यकारिका, १८ ।
(ख) सांख्य सूत्र, १।१४९ ।
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(ग) सांख्य प्रवचन भाष्य, ६।४५ ।
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