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________________ ... आत्म-स्वरूप-विमर्श : ८९ जैन एवं सांख्य दार्शनिकों की तरह न्याय-वैशेषिक दार्शनिक भी आत्माओं को अनेक मानते हैं । आत्मा की अनेकता का कारण न्याय-वैशेषिकों ने सांख्य दार्शनिकों की भाँति स्थिति और अवस्थाओं की विविधता को बताया है । इसके अतिरिक्त आगम-प्रमाण से भी आत्मा की अनेकता सिद्ध की है। मीमांसक दार्शनिक भी जैन दार्शनिकों की तरह आत्मा को अनेक मानते हैं। प्रकरणपंजिका में प्रभाकर ने कहा है कि आत्मा अनेक तथा प्रति शरीर भिन्न-भिन्न है।' इनका तर्क है कि जिस प्रकार मेरी क्रियाएँ मेरी आत्मा के कारण हैं, उसी प्रकार अन्य की क्रियाएँ अन्य आत्माओं के कारण ही सम्भव है ।२ अनेक आत्माओं के न मानने से अनुभवों की व्याख्या करना ही असम्भव हो जायगा । रामानुज आदि वैष्णव आचार्य भी अनेकात्मवाद को मानते हैं। एकात्मवाद की समीक्षा : अद्वैत वेदान्त एक आत्मा (ब्रह्म) को ही मानते हैं। यह एकमेवमद्वितीय है। जिस प्रकार एक चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब विभिन्न जलपात्रों में पड़ने पर वह अनेक रूप में दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार एक आत्मा का प्रतिबिम्ब अविद्या पर पड़ने से वह अनेक प्रतीत होता है। अतः अनेकात्मवाद की कल्पना अज्ञान के कारण है । सूत्रकृतांग सूत्र में इस मत की समीक्षा में कहा गया है कि एकात्मवाद की कल्पना युक्तिरहित है। क्योंकि यह अनुभव से सिद्ध है कि सावद्य अनुष्ठान करने में जो आसक्त रहते हैं, वे ही पाप-कर्म करके स्वयं नरकादि के दुःखों को भोगते हैं, दूसरे नहीं। अतः आत्मा एक नहीं है, बल्कि अनेक है। विश्वतत्त्व प्रकाश में कहा है कि यदि आत्मा एक होता तो एक ही समय में यह तत्त्वज्ञ है तथा मिथ्याज्ञानी है, यह आसक्त है तथा विरक्त है इस प्रकार के विरुद्ध व्यवहार न होते । अतः आत्मा एक नहीं है। यदि एक ही आत्मा मानी जाये तो एक व्यक्ति के द्वारा देखे गये तथा अनुभूत पदार्थ का स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान दूसरे व्यक्ति को भी होना चाहिए, क्योंकि दोनों की आत्मा एक है। किन्तु ऐसा नहीं होता है । अतः सिद्ध है कि आत्मा अनेक हैं ।" एक आत्मा मानने से एक के जन्म से सब का जन्म और एक के मरण से सब का मरण मानना पड़ेगा। १. प्रकरणपंजिका (प्रभाकर) पृ० १४१ । २. भारतीय दर्शन : डॉ. राधाकृष्णन्, भाग २, पृ० ४०४ । ३. सूत्रकृतांग सूत्र, १।१।१।१०। ४. विश्वतत्त्वप्रकाश (भावसेन) पृ० १७४ । ५. (क) विश्वतत्त्वप्रकाश (भावसेन), पृ० १७५ । (ख) शास्त्रदीपिका, (पार्थसारथि), पृ० १२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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