________________
९० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
इसी तरह से एक के दुःखी होने से सबको दुःखी तथा एक के सुखी होने से सब को सुखी मानना पड़ेगा । लेकिन इस प्रकार की अव्यवस्था यहाँ दृष्टिगोचर नहीं होती है, अर्थात् - सभी के जन्म-मरण, सुख-दुःख अलग-अलग दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए सिद्ध है कि आत्मा एक नहीं, अनेक हैं । स्वामी कार्तिकेय ने कहा भी है कि एक ब्रह्म मात्र को आत्मा मानने से चण्डाल और ब्राह्मण में भेद ही नहीं रहेगा । 2 भट्टाकलंक देव भी कहा है कि धर्मादि की तरह जीवपुद्गल एक-एक द्रव्य नहीं हैं, अन्यथा क्रियाकारक का भेद, संसार एवं मोक्ष आदि नहीं हो सकेंगे । हेमचन्द्र ने भी यही कहा है ।
'आत्मा एक है' यदि इस कथन का तात्पर्य है कि 'प्रमाता एक है', तो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है । क्योंकि प्रत्येक शरीर के सुख-दुःख का ज्ञाता जीव भिन्न-भिन्न है, यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होता है । यदि ऐसा न मानकर सबका एक प्रमाता माना जाए तो पशु-पक्षी मनुष्यादि का भेद तथा माता-पिता का भेद नष्ट हो जायगा ।" सरी बात यह है कि वेदान्त दर्शन में अन्तःकरण से अविच्छिन्न चैतन्य को प्रमोता कहा है । अतः अन्तःकरण अनन्त है इसलिए प्रमाता भी अनन्त सिद्ध होते हैं ।
वेदान्तियों का यह तर्क — कि आत्मा आकाश की तरह व्यापक है इसलिए एक है — ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा व्यापक नहीं है, इसकी मीमांसा आगे की जायेगी | यदि कहा जाए कि आत्मा अमूर्तिक है, तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि यह कोई हो वह एक ही हो । क्रिया अमूर्त होते हुए भी आत्मा अमूर्त होते हुए अनेक माननी चाहिए । १. सर्वेषामेक एवात्मा युज्यते नेति जल्पितुम् । जन्ममृत्युसुखादीनां भिन्नानामुपलब्धितः ॥
इसलिए एक है, व्याप्ति नहीं है अनेक होती है अतः आत्मा को
।
- श्रावकाचार ( अमितगति), ४।२८ |
२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २३५ ।
३. तत्त्वार्थवार्तिक, ५ ६ ६
४. मुक्तोऽपि वाऽभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे | षड्जीवकायं त्वमनन्तसंख्य माख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः ॥
५. विश्वतत्त्वप्रकाश, पृ० १७९ । ६. वही ।
७. ननु आत्मा एक एव अमूर्तत्वात् आकाशवदिति चेन्न । हेतोः क्रियाभिर्व्यभिचारात् । वही, पृ० १८० ।
Jain Education International
जैसे आकाश, कि जो अमूर्त
—अन्ययोगव्यवच्छेदिका, २९ ।
For Private & Personal Use Only
इसी प्रकार नित्य होने के
www.jainelibrary.org