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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ९१
कारण भी उसे एक मानना ठीक नहीं है, क्योंकि घटत्व आदि अपर सामान्य तथा परमाणु आदि नित्य होते हुए भी अनेक होते हैं । विद्यानन्दि ने एकात्मवाद की समीक्षा करते हुए कहा है कि यदि स्वप्नादि का ज्ञान जिस प्रकार भ्रांत होता है, उसी प्रकार से यदि जीव के अनेकपने के ज्ञान को भ्रांत माना जायेगा तो 'एकोऽहं' इस ज्ञान को भी भ्रांत मानना पड़ेगा । वेदान्ती यह नहीं कह सकते हैं कि मुझे अपनी आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की आत्मा का अनुभव नहीं होता है, अन्यथा शून्यवाद की सिद्धि हो जायेगी। क्योंकि वेदान्ती अजीव द्रव्य मानते ही नहीं और अन्य जीव का अस्तित्व न मानने से वे अपना अस्तित्व भी सिद्ध न कर सकेंगे। यदि कहा जाए कि स्वसंवेदन से एकात्मवाद की सिद्धि होती है तो उसी प्रकार अन्य अनेक आत्माओं की भी सिद्धि हो जाती है । अतः आत्मा एक नहीं, अनेक या अनन्त हैं ।२
जीव एक ब्रह्म का अंश नहीं है : वेदान्तियों का मत है कि जिस प्रकार चन्द्रमा एक होते हुए भी जल के बहुत से घड़ों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखलाई पड़ता है, उसी प्रकार यद्यपि ब्रह्म एक ही है किन्तु (अविद्या के वश से) बहुतसे शरीरों में भिन्न रूप से दृष्टिगोचर होता है । अतः जीव को एक ब्रह्म का अंश ही मानना चाहिए । __ जैन दार्शनिक उपर्युक्त सिद्धान्त से सहमत नहीं हैं, इसलिए उनका कहना है कि आकाशस्थ चन्द्रमा जल के बहुत से घड़ों में विभिन्न रूप से नहीं दिखलाई देता बल्कि बहुत-से जल से भरे हुए घड़ों में चन्द्र-किरणों की उपाधि के निमित्त से जलरूप पुद्गल ही चन्द्राकार रूप से परिणत होता है । यथा देवदत्त के मुख के निमित्त से बहुत से दर्पणों के पुद्गल ही नाना मुखाकार रूप से परिणत हो जाते हैं, देवदत्त का मुख नाना रूप नहीं होता है । देवदत्त का मुख स्वयं नाना रूप धारण कर लेता है यदि ऐसा माना जाए तो दर्पण में विद्यमान मुख के प्रतिबिम्बों में भी चैतन्य स्वरूप होना चाहिए मगर ऐसा होता नहीं है । इस प्रकार चन्द्रमा नहीं अपितु जलरूप पुद्गल ही नाना रूप परिणमन को प्राप्त होता है । परमात्मप्रकाश की टीका में भी यही कहा गया है।
जीव ब्रह्म का 'अंश' नहीं है, इसकी पुष्टि में दूसरा तर्क यह भी दिया १. अथ आत्मा एक एव नित्यत्वात् आकाशवदिति चेन्न । ___ अपरसामान्यैर्हेतोय॑भिचारात् ।-वही, पृ० १८० । २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १।४।३०, ३३, ३४ । ३. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति टीका, ७१ । ४. परमात्मप्रकाश टीका, २।९९ ।
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