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________________ ९२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार गया है कि चन्द्रमा की तरह ब्रह्म का इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं होता है, जो चन्द्रमा की तरह नाना रूप हो जाए । अतः जीव का ब्रह्म का अंश होना सिद्ध नहीं होता है । " अनेकात्मवाद और लाइवनित्ज : जैन-दर्शन के अनेकात्मवाद की तुलना जर्मन दार्शनिक लाइवनित्ज से की जा सकती है । लाइवनित्ज के सिद्धान्तानुसार अनेक चिदणु हैं, जिनमें चैतन्य का स्वतन्त्र विकास हो रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि लाइवनित्ज और जैन दर्शन में इस सम्बन्ध में बहुत कुछ समानता है । ४ आत्म-परिमाण : भारतीय दर्शन में आत्मा के परिमाण के विषय में विभिन्न विचारधाराएँ परिलक्षित होती हैं । उपनिषदों में आत्मा को व्यापकरे, अ और शरीर प्रमाण" बताया गया है । इस विषय में विशेष विचार नीचे प्रस्तुत किया जाता है । आत्मा अणु परिमाण वाला है : रामानुजाचार्य, माघवाचार्य, वल्लभाचार्य और निम्बार्काचार्य — ये दार्शनिक आत्मा को अणु परिमाण मानते हैं । इनका मत है कि आत्मा बाल के हजारवें भाग के बराबर है और हृदय में निवास करता है । आचार्य रामानुज ने कहा है--अणु परिमाण वाला जीव ज्ञान गुण के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में होने वाली सुखादि संवेदन रूप है । जिस प्रकार दीपक की शिखा छोटी होते हुए वाली होने से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती है, गुण के द्वारा शरीर में वादियों का तर्क है कि क्रिया का अनुभव करता भी संकोच - विस्तार गुण इसी प्रकार आत्मा ज्ञानहोने वाली क्रियाओं को जान लेती है । अणुपरिमाणयदि आत्मा को अणुपरिमाण न मान कर व्यापक माना १. किचन चैकब्रह्मनामा कोऽपि दृश्यते । - पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, ७१ ।१२४ । २. द्रष्टव्य -- पाश्चात्य दर्शन -सी० डी० शर्मा । ३. (क) कठोपनिषद्, १।२।२२ । (ख) श्वेताश्वतर उप०, २।१।२ । (ग) मुण्डक उप०, १।१।६ । ४. (क) यथा ब्रीहिर्वा यवो वा । -- - बृहदारण्यक उप०, ३८८ । (ख) वही, ५। ६ । ७ । (ग) कठोपनिषद्, २।१।१३ । (घ ) छान्दोग्य उप०, ३।७४।३ । ५. (क) मुण्डक उप०, १|१|६ | ( ख ) छान्दोग्य उप०, ३ | १४ | ३ | ६. पंचदशी, ६।८१ । भारतीय दर्शन ( डॉ० राधाकृष्णन् ), भाग २, पृ० ६९२ । ७. ब्रह्मसूत्र रामानुज भाष्य, २।३।२४-६ । भारतीय दर्शन ( डॉ० राधाकृष्णन् ), भाग २, पृ० ६९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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