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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्शं : ९३ जाए तो आत्मा परलोक गमन न कर सकेगी । इसी प्रकार देह प्रमाण आत्मा मानने पर आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा । इसलिए उपर्युक्त दोषों के कारण आत्मा को वट-बीज की तरह अणु परिमाण मानना ही उचित है । समीक्षा : आत्मा को अणु परिमाण मानने वालों की न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग, मीमांसा एवं शंकराचार्य आदि दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिकों ने कड़ी आलोचना की है, जो निम्नांकित है : ( अ ) जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि आत्मा को अणु परिमाण माना जाये तो शरीर के जिस भाग में आत्मा रहेगी उसी भाग में होने वाली संवेदना का अनुभव कर सकेगी, सम्पूर्ण शरीर में होने वाली संवेदनाओं का अनुभव उसे न हो सकेगा । इसलिए आत्मा को अणुरूप मानना ठीक नहीं है । (आ) अणुरूप आत्मा अलातचक्र के समान पूरे शरीर में तीव्र गति से घूम कर समस्त शरीर में सुख-दुःखादि अनुभव कर लेता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चक्कर लगाते हुए आत्मा जिस समय जिस अंग में पहुँचेगी उस समय उसी अंग की संवेदना का अनुभव कर सकेगी एवं वही अंग सचेतन रहेगा और शेष अंग अचेतन हो जायेंगे | अतः अन्तराल में सुख का विच्छेद हो जाएगा । इसलिए आत्मा अणुरूप नहीं है । २ (इ) अणु परिमाण आत्मा मानने वाले यदि यह कहें कि सर्वाङ्ग सुख का अनुभव होना वायु का स्वभाव है तो उनका यह कथन भी ठीक नहीं है, सुखज्ञानादि अचेतन हवा का गुण नहीं है बल्कि चेतन आत्मा का स्वभाव है । ३ (ई) यदि आत्मा अणु आकार माना जाए तो भिन्न इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला ज्ञान एक ही समय में नहीं होता, लेकिन नीबू देख कर रसना इन्द्रिय में विकार उत्पन्न होना सिद्ध करता है कि युगपद् दो-तीन इन्द्रियों का ज्ञान होता है | अतः आत्मा अणु परिमाण नहीं है । यदि आत्मा अणु आकार का होता है तो मैं पैरों से चलता हूँ, हाथ से लेता हूँ, नेत्रों से देखता हूँ आदि विभिन्न प्रतीति एक समय में न होती । यह कहना भी ठीक नहीं है कि आत्मा राजा की तरह एक जगह रहकर विभिन्न इन्द्रियों रूपी नौकरों से इष्ट-अनिष्ट को जान कर सुख-दुःख को एक साथ प्राप्त करता है क्योंकि जिस प्रकार राजा के नौकर १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ० ४०९ । प्रमेयरत्नमाला, पृ० २९५ । और भी देखें -- ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य, २।३।२९ । २. प्रमेयरत्नमाला, पृ० २९५ | श्रावकाचार ( अमितगति ) ४१२९ । ३. समीरणस्वभावोऽयं सुंदरा नेति भारती । सुखज्ञानादयो भावाः संति नाचेतने यतः । - श्रावकाचार, अमितगति ४।३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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