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९४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार सचेतन होते हैं उस प्रकार इन्द्रियादि सचेतन नहीं होती, इसलिए वे आत्मा को इष्ट-अनिष्ट विषयों का समाचार नहीं दे सकते हैं। यदि कहा जाए कि इन्द्रियादि सचेतन हैं तो एक शरीर में अनेक चेतनों (आत्माओं) को मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से अव्यवस्था उत्पन्न हो जायेगी। दूसरा दोष यह आयेगा कि एक शरीर में अनेक जीव एक साथ विभिन्न क्रिया करेंगे, जिसके कारण शरीर नष्ट ही हो जायेगा अथवा शरीर निष्क्रिय हो जायेगा। इन्द्रियादि समस्त अंगोपांगों को मचेतन मानने से आत्मा देह-परिमाण वाला सिद्ध हो जायेगा।' यदि उपर्युक्त दोषों से बचने के लिए कहा जाये कि इन्द्रियाँ सचेतन नहीं अचेतन हैं तो वे आत्मा को इष्ट-अनिष्ट विषयों का ज्ञान उसी प्रकार नहीं करा सकती हैं जिस प्रकार अचेतन नख, बाल इष्टादि का ज्ञान नहीं कराते हैं। इसके अतिरिक्त इन्द्रियाँ अपना प्रदेश छोड़कर जीव के प्रदेशों तक नहीं जाती हैं । जीव स्वयं इन्द्रिय-प्रदेश तक पहुँच कर इष्ट-अनिष्ट का ज्ञान करता है ऐसा मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने से समस्त शरीर में एक साथ सुखदुःख का अनुभव न हो सकेगा जब कि सब शरीर में एक साथ सुखादि का अनुभव होता है, यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। अतः आत्मा को अणु परिमाण मानना ठीक नहीं है।
स्वामी कार्तिकेय ने अणु परिमाण की समीक्षा में कहा है कि "आत्मा को अणु रूप मानने पर आत्मा निरंश हो जायेगी, और ऐसा होने पर दो अंशों के पूर्वोत्तर में सम्बन्ध न होने के कारण कोई भी कार्य सिद्ध न हो सकेगा।" इसलिए आत्मा को अणु रूप मानना व्यर्थ है । कर्मोदय से प्राप्त शरीर के बराबर ही आत्मा का आकार होता है, यही मानना उचित है । __आत्मा व्यापक नहीं है : न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा एवं अद्वैत वेदान्त में आत्मा को सर्वव्यापक माना गया है । गीता में भी आत्मा को व्यापक प्रतिपादित किया है। उनका सिद्धान्त है कि आत्मा आकाश की तरह अमूर्त द्रव्य है इसलिए वह आकाश की तरह विभु अर्थात् महापरिमाण वाला है । आत्मा को व्यापक मानने में न्याय-वैशेषिक की युक्ति है कि अदृष्ट सर्वव्यापी है और वह आत्मा का गुण है । इसलिए आत्मा भी व्यापक परिमाण वाला है ।
१. विश्वतत्त्वप्रकाश (भावसेन), पृ० २०६ । २. वही, पृ० २०७ । ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २३५ । ४. गीता, २।२० । ५. पंचदशी, ६।८६ ।
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