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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ९५
वह न तो अणु परिमाण है और न देह परिमाण है । अतः आत्मा को व्यापक ही मानना चाहिए।'
समीक्षा : रामानुजाचार्य तथा जैन दार्शनिकों ने आत्मा को विभु परिमाण वाला नहीं माना इसलिए उन्होंने इस सिद्धान्त का ताकिक रूप से खण्डन किया है । आत्मा अमूर्त है इसलिए उसे व्यापक मानना ठीक नहीं है क्योंकि अमूर्त का अर्थ रूपादि से रहित होना है । न्याय-वैशेषिक मत में मन अमूर्त माना गया है लेकिन उसे वे व्यापक नहीं मानते हैं । अतः या तो मन की तरह आत्मा को व्यापक नहीं मानना चाहिए, या आत्मा की तरह मन को व्यापक मानना चाहिए, क्योंकि मन और आत्मा दोनों अमूर्त हैं । अतः आकाश की तरह अमूर्त होने से आत्मा को व्यापक मानना ठीक नहीं है।'
न्याय-वैशेषिक : न्याय-वैशेषिक आदि आचार्यों का कहना है कि आत्मा व्यापक है, क्योंकि व्यापक आकाश की तरह वह नित्य है।
जैन : जैन दार्शनिक प्रत्युत्तर में कहते हैं कि यह कोई व्याप्ति-नियम नहीं है कि जो नित्य हो, वह व्यापक भी हो। परमाणु आदि नित्य हैं किन्तु व्यापक नहीं हैं । आत्मा नित्य है इसलिए वह व्यापक है, यह कहना ठीक नहीं है । इसी प्रकार यह भी कहना उचित नहीं है कि आत्मा अमूर्त एवं नित्य है इसलिए व्यापक है, क्योंकि परमाणुओं के रूपादि गुण अमूर्त और नित्य होते हुए भी व्यापक नहीं हैं। आत्मा को कथंचित् नित्य मानने पर भी वह घट की तरह व्यापक नहीं हो सकता है। कूटस्थ नित्य आत्मा नहीं है, यह लिखा जा चुका है।
न्यायवैशेषिक : आत्मा आकाश की तरह स्पर्शादि से रहित है, इसलिए आकाश की तरह आत्मा व्यापक है ।
जैन : न्याय-वैशेषिक का उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि गुण और क्रिया भी स्पर्श-विहीन होती है किन्तु वह ब्यापक नहीं मानी गयी है। इसी प्रकार न्याय-वैशेषिक घट, पट आदि कार्य द्रव्यों को उत्पत्ति के प्रथम क्षण में
१. (क) तर्कभाषा (केशव मिश्र), पृ० १४९ । (ख ) प्रकरणपंजिका, पृ०
१५७-५८। २. विश्वतत्त्वप्रकाश, (भावसेन) ५६ । ३. वही, पृ० १९३ । ४. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० २६४, २६६ । ५. गुणक्रियाभिर्हेतोव्यंभिचारात् । विश्वतत्त्व प्रकाश, पृ० १९३ ।
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