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९६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
स्पर्शरहित मानते हैं किन्तु व्यापक नहीं मानते हैं । अतः स्पर्शादि से रहित होने के कारण आत्मा को व्यापक मानने से गुण-क्रिया एवं उत्पत्ति के प्रथम क्षण में घटादि कार्य द्रव्यों को व्यापक मानना पड़ेगा । अतः आत्मा विभु नहीं है | " प्रभाचन्द्र का कहना है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से अपने-अपने शरीर में ही सुखादि स्वभाव वाले आत्मा की प्रतीति सभी को होती है । दूसरे के शरीर में और अन्तराल में उसकी प्रतीति नहीं होती है । इसलिए आत्मा को विभु अथवा व्यापक मानना ठीक नहीं है । यदि ऐसा न माना जाए तो सभी सर्वज्ञ बन जाएँगे क्योंकि सभी को सर्वत्र अपनी आत्मा की प्रतोति होती है । इसके अतिरिक्त विभु आत्मवाद में भोजनादि व्यवहार में संकर (मिश्रण) दोष भी आता है? क्योंकि आत्मा व्यापक है इसलिए एक खायेगा तो सबको उसका रसास्वादन होगा । जो किसी को भी मान्य नहीं है, इसलिए आत्मा व्यापक नहीं है, यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है ।
अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध होता है कि आत्मा व्यापक अथवा परम-परिमाण वाला नहीं है क्योंकि दूसरे द्रव्यों की अपेक्षा उसमें घटादि की तरह असाधारण सामान्य रहता है तथा वह अनेक है । 'आत्मा व्यापक नहीं है क्योंकि आत्मा दिशा, काल और आकाश से भिन्न द्रव्य हैं, जैसे घट | आत्मा व्यापक नहीं है क्योंकि वाणादि की तरह आत्मा सक्रिय है । 'आत्मा व्यापक एवं अणुरूप नहीं है क्योंकि वह चेतन है, जो व्यापक या अणुरूप होते हैं वे चेतन नहीं होते हैं, जैसे आकाश एवं परमाणु ।' उपर्युक्त अनुमानों से सिद्ध है कि आत्मा व्यापक नहीं है । न्यायवैशेषिकों का कथन है कि आत्मा अणु परिमाण नहीं है क्योंकि वह नित्य द्रव्य है, जैसे आकाश । किन्तु उनका यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि उपर्युक्त अनुमान में आत्मा के अणु परिमाण का निषेध का तात्पर्य है क्या ? क्या उपर्युक्त प्रतिषेध प्रसज्य रूप है या पर्युदासरूप ? यदि आत्मा में अणुपरिमाण के निषेध का तात्पर्य पर्युदास रूप अभाव है तो अणुपरिमाण के अभाव होने से आत्मा
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१. अथ तद्व्यवच्छेदार्थ स्पर्शरहितद्रव्यत्वादित्युच्यत इति चेन्न । घटपटादिकार्यद्रव्याणामुत्पन्न प्रथमसमये स्पर्शादिरहितत्वेन हेतोर्व्याभिचारात् । - विश्वतत्त्वप्रकाश, पृ० १९३ ।
२. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ५७० । न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० २६१ ।
३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ५७०, ५७१ ।
न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० २९२ ।
प्रमेयरत्नमाला, पृ० २९२ ।
४. एक वस्तु के अभाव में दूसरी वस्तु का सद्भाव ग्रहण करना पर्युदास कहलाता है । प्रत्यक्षादन्यो प्रत्यक्ष इति पर्युदासः । राजवार्तिक, २२८१८ ।
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