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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ९७
या तो महापरिमाण हो सकता है अथवा मध्य परिमाण । यदि आत्मा में अणुपरिमाण के निषेध का तात्पर्य यह माना जाता है कि आत्मा महापरिमाण का अधिकरण है, तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि अनधिकरणत्व हेतु और महापरिमाण साध्य दोनों समान हो जायेंगे । और यदि 'आत्मा अणुपरिमाण का अधिकरण नहीं है' इस पर्युदास रूप अभाव का तात्पर्य अवान्तर परिमाण रूप आत्मा है यह माना जाता है तो नैयायिकों का यह अनुमान, 'आत्मा व्यापक है अणुपरिमाण का अनधिकरण होने से' मिथ्या है क्योंकि इस अनुमान में दिया गया हेतु अनधिकरणत्व आत्मा को व्यापक सिद्ध न करके मध्यमपरिमाण सिद्ध करता है। अतः यह कहना कि आत्मा व्यापक है, ठीक नहीं है।
यदि अणुपरिमाण के निषेध का तात्पर्य प्रसज्य रूप अभाव माना जाए तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि प्रसज्य अभाव तुच्छाभाव होता है इसलिए हेतु असिद्ध होने से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है। तुच्छाभाव किसी प्रमाण का विषय भी नहीं है इसीलिए इससे साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है । दूसरी बात यह है कि यदि तुच्छाभाव को सिद्ध मान भो लिया जाय तो प्रश्न होता है कि यह साध्य (महापरिमाण अर्थात् व्यापक) का स्वभाव है अथवा कार्य ? तुच्छाभाव को साध्य का स्वभाव तो माना नहीं जा सकता है अन्यथा हेतु की तरह साध्य भी तुच्छाभाव रूप हो जाएगा। इसी प्रकार तुच्छाभाव को साध्य का कार्य भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि तुच्छाभाव में कार्यत्व नहीं बन सकता है । अतः 'आत्मा व्यापक है' इस साध्य की सिद्धि के लिए दिया गया हेतु 'अणुपरिमाण का अनधिकरण होने से' सदोष होने के कारण आत्मा को व्यापक मानना ठीक नहीं है।
इसी प्रकार नैयायिकादि का यह कथन भी ठीक नहीं है कि आत्मा आकाश की तरह व्यापक है क्योंकि सर्वत्र उसके गुणों की उपलब्धि होती है, यहाँ प्रश्न होता है कि 'सर्वत्र' से क्या तात्पर्य है ? क्या सर्वत्र का अर्थ अपने सम्पूर्ण शरीर में गणों की उपलब्धि होना या पर-शरीर में भी गुणों की उपलब्धि होना है
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ५१७। न्यायकुमुदचन्द्र पृ० २६२ । प्रमेयरत्न
माला, पृ० २९२ । २. वस्तु का अभाव मात्र प्रकट करना अर्थात् मात्र अभाव समझना प्रसज्य
अभाव कहलाता है जैसे इस भूतल पर घट का अभाव । न्यायविनिश्चय
वृत्ति, २।१२३। ३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ५७१ । प्रमेयरलमाला, पृ० २९७ ।
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