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________________ ९८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार จ अथवा अन्तराल में भी गुणों की उपलब्धि होना है । प्रथम पक्ष मानने से हेतु विरुद्ध होने से अनुमान विरुद्ध हेत्वाभास से दूषित है । क्योंकि स्वशरीर में सर्वत्र गुणों की उपलब्धि होने से आत्मा स्व-शरीर में ही सिद्ध होगी । यदि यह माना जाय कि पर-शरीर में भी गुणों की उपलब्धि होती है तो हेतु असिद्ध हो जाएगा क्योंकि यह लिखा जा चुका है कि पर- शरीर में बुद्ध्यादि गुणों की उपलब्धि नहीं होती है अन्यथा सभी प्राणी सर्वज्ञ बन जायेंगे । गुणों की उपलब्धि शरीर के अलावा अन्तराल में अर्थात् शरीर के बाहर नहीं हो सकती है । न्याय-वैशेषिकादि दार्शनिकों ने के गुणों आत्मा को गुणों की व्यापक सिद्ध करने के लिए जिस प्रकार सर्वत्र उपलब्धि की यह उदाहरण दिया था कि आकाश होती है उसी प्रकार आत्मा के सर्वत्र उपलब्धि होती है । अतः यहाँ प्रश्न होता है कि आकाश के कौन से गुण की सर्वत्र उपलब्धि होती है : शब्द गुण की अथवा महत् गुण की ? शब्द आकाश का गुण ही नहीं, वह तो पुद्गल है, इसलिए उसकी सर्वत्र उपलब्धि से आकाश को व्यापक मानना व्यर्थ ही है । इसी प्रकार महत् गुण की सर्वत्र उपलब्धि न होने से आकाश को व्यापक मानना ठीक नहीं है क्योंकि महत् गुण अतीन्द्रिय है । अतः उदाहरण ही ठीक नहीं है इसलिए आत्मा को व्यापक सिद्ध करना अतार्किक है । अदृष्ट आत्मा का गुण नहीं है : न्याय-वैशेषिकों ने अदृष्ट को आत्मा का गुण माना है और उस गुण को लेकिन उनका यह कथन व्यापक बतलाकर आत्मा को व्यापक सिद्ध किया है, ठीक नहीं है । क्योंकि अदृष्ट आत्मा का गुण नहीं बल्कि कर्म है । हवा का तिरछा चलना, अग्नि का ऊँचे जाना स्वभाव से ही सिद्ध है । यदि अग्नि की दहन शक्ति का कारण अदृष्ट माना जाये तो ठीक नहीं है अन्यथा तीनों लोकों की रचना का कारण अदृष्ट को मानना होगा, ईश्वर को नहीं । अतः आत्मा के गुण सर्वत्र नहीं पाये जाते हैं । इसलिए आत्मा व्यापक नहीं है । इसके विपरीत आत्मा के गुण शरीर में पाये जाते हैं इसलिए आत्मा को शरीर प्रमाण मानना चाहिए | अमितगति ने ब्रह्माद्वैत की समीक्षा में कहा भी है 'आत्मा को सर्वव्यापी कहना ठीक नहीं है क्योंकि शरीर के बाहर आत्मा दृष्टिगोचर नहीं होती है । ( दूसरी बात यह है कि ) शरीर के बाहर आत्मा का गुण ज्ञान रहता है 44 १. प्रमेयकमलमार्तण्ड, ०५६९ । २ . वही । ३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पु० ५६९ । ४. स्याद्वादमंजरी, ९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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