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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ९९ तो वहाँ पर कृत-वकृत बुद्धि होना चाहिए लेकिन होती नहीं हैं । इसलिए सिद्ध है कि ज्ञान शरीर के बाहर नहीं रहता है। जब आत्मा का गुण ज्ञान शरीर के बाहर नहीं है तो शरीर के बाहर आत्मा कैसे रह सकती है अर्थात् नहीं रह सकती है। क्योंकि गुण के बिना गुणी नहीं रहता है ।" स्वामी कार्तिकेय ने भी कहा है : “आत्मा सर्वगत नहीं है क्योंकि सर्वज्ञ को सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता है । शरीर में सुख-दुःख का अनुभव होने के कारण आत्मा देह परिमाण है ।२ अतः घट की तरह आत्मा अव्यापक है । हेमचन्द्र ने भी यही कहा है।
आत्मा व्यापक मानने से एक दोष यह भी आता है कि सभी आत्माओं के शुभ-अशुभ कर्मों का मिश्रण हो जाएगा । अतः एक के दुःखी होने से सभी दुःखी और एक के सुखी होने पर सभी सुखी हो जायेंगे।"
आत्मा व्यापक मामने से आत्मा को संसार का कर्ता मानना होगा क्योंकि आत्मा और ईश्वर दोनों को न्याय-वैशेषिक व्यापक मानते हैं इसलिए दोनों परस्पर दूध-पानी की तरह मिल जायेंगे इसलिए दोनों सृष्टिकर्ता होंगे या दोनों नहीं होंगे।
आत्मा को व्यापक मानने पर एक दोष यह भी आता है कि सभी व्यापक आत्माओं को स्वर्ग, नरक आदि समस्त पर्यायों का एक साथ अनुभव होने लगेगा । यह कहना उचित नहीं है कि आत्मा अपने शरीर में रह कर किसी एक पर्याय का उपभोग करता है क्योंकि देह प्रमाण आत्मा न्याय-वैशेषिकादि दार्शनिकों को मान्य नहीं है। आत्मा को एक देश रूप से शरीर में व्यापक मानने पर आत्मा को सावयव या अणुरूप मानना होगा, ऐसी हालत में वह आत्मा सम्पूर्ण शरीर का भोग नहीं कर सकेगी।
व्यापक परिमाण आत्मा मानने पर आत्मा के संसार आदि असम्भव हो जायेंगे । अतः एकान्त रूप से आत्मा को व्यापक मानना ठीक नहीं है ।
१. श्रावकाचार (अमितगति) ४।२५-७ । २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १७७ ।। ३. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, ९।। ४. स्याद्वादमंजरी, ९ । ५. वही, पृ० ७० । ६. विश्वतत्त्वप्रकाश, पृ० १९७ । ७. स्याद्वादमंजरी, पृ० ७० । ८. सत्त्वार्थवार्तिक, २।२९।३ । विशेषावश्यक भाष्य १३७९ ।
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