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________________ १०० : जैनदर्शन में आत्म-विचार - न्याय-वैशेषिक चिन्तकों का कहना है कि आत्मा को व्यापक न मानने से परमाणुओं के साथ उसका सम्बन्ध न होने से अपने शरीर के योग्य परमाणुओं को एकत्र नहीं कर सकेगी और शरीर के अभाव में सभी आत्माओं का मोक्ष मानना पड़ेगा। जैन दार्शनिक कहते हैं कि नैयायिकों का उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि यह कोई निश्चित नियम नहीं है कि संयुक्त होने पर ही आकर्षण होता है । चुम्बक लोहे के साथ संयुक्त नहीं होता है फिर भी लोहे को आकर्षित कर लेता है। इसी प्रकार आत्मा का परमाणु के साथ संयोग न होने पर भी अपने शरीर के योग्य परमाणुओं को आकर्षित कर सकता है । अतः आत्मा को व्यापक मानना उचित नहीं है।' जीव कथंचित् सर्वव्यापी है : जैन-दर्शन में आत्मा को कथंचित् सर्वव्यापी माना गया है। आत्मा ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञान-प्रमाण है । और ज्ञान समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानने से ज्ञेय-प्रमाण है तथा ज्ञेय समस्त लोकालोक है इसलिए ज्ञान सर्वगत है । ज्ञान सर्वगत होने से आत्मा सर्वगत सिद्ध होता है। यदि आत्मा को ज्ञान प्रमाण न माना जाय तो या तो वह ज्ञान से कम होगा या अधिक ? यदि ज्ञान को आत्मा से छोटा माना जाएगा तो चैतन्य के साथ ज्ञान का सम्बन्ध न होने से ज्ञान अचेतन हो जाएगा अतः पदार्थों को नहीं जान सकेगा। यदि आत्मा ज्ञान से बड़ा है तो ज्ञान के बिना आत्मा पदार्थों को नहीं जान सकेगा। अतः आत्मा ज्ञान प्रमाण ही है इसलिए आत्मा व्यापक है। कर्मरहित केवली भगवान् अपने अव्याबाध केवलज्ञान से लोक और अलोक को जानते हैं इसलिए वे सर्वगत हैं।" आत्मा शरीर प्रमाण है : उपनिषदों में आत्मा को देह प्रमाण भी निरूपित किया गया है । वहाँ कहा गया है कि आत्मा नख से शिख तक व्याप्त है। जैन १. स्याद्वादमंजरी, पृ० ७० । २. आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिठें । णेयं लोयालोयं तम्हा गाणं तु सव्वगयं ।-प्रवचनसार, ११२३, तथा पंचास्तिकाय, ८५। ३. प्रवचनसार, १॥ २४-२५ । ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २५४-२५५ । ५. अप्पा कम्मविवज्जियउ केवल णाणेण जेण । लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ॥-परमात्मप्रकाश, ११५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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