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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श: १०१ दर्शन ने आरम्भ से आत्मा को देह-प्रमाण प्रतिपादित किया है ।' देह-प्रमाण कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा को अपने संचित कर्म के अनुसार जितना छोटा-बड़ा शरीर मिलता है उस पूरे शरीर में व्याप्त हो कर वह रहता है । शरीर का कोई भी अंश ऐसा नहीं होता है जहाँ जीव न हो । जीव में संकोचविस्तार करने की शक्ति होती है। यही कारण है कि जीव प्रदेश, धर्म, अधर्म और लोकाकाश के बराबर होते हुए भी कर्मार्जित शरीर में व्याप्त हो कर अर्थात्-यदि शरीर छोटा होता है तो अपने प्रदेशों का संकोच कर लेता है और यदि शरीर बड़ा होता है तो अपने प्रदेशों को फैला कर उसमें व्याप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ-जब पद्मराग रत्न को छोटे बर्तन में रखे हुए दूध में डाला जाता है तो वह उस सम्पूर्ण दूध को प्रकाशित करता है और जब उसी रत्न को बड़े बर्तन में रखे हुए दूध में डाला जाता है तो वह उस बड़े बर्तन के दूध को प्रकाशित करता है। इस प्रकार आत्मा शरीर में रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर को प्रकाशित करता है । कहा भी है-'अमूर्त आत्मा के संकोच-विस्तार की सिद्धि अपने अनुभव से सिद्ध होती है क्योंकि जीव स्थूल तथा कृश शरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है ।२ अनगारधर्मामृत में भी कहा है कि ज्ञान दर्शन सुखादि गुणों से युक्त अपनी आत्मा का अपने अनुभव से अपने शरीर के भीतर सभी जीवों को ज्ञान होता है । इस प्रकार सिद्ध है कि आत्मा शरीरप्रमाण है। मल्लिषेण ने स्पष्ट लिखा है कि आत्मा मध्यम परिमाण वाला है, क्योंकि उसके ज्ञानादि गुण शरीर में दृष्टिगोचर होते हैं, शरीर के बाहर नहीं । जिसके गुण जहाँ होते हैं वह वस्तु वहीं पर होती है, जैसे घट के रूप रंगादि जहाँ होते हैं वहीं पर घट होता है । इसी प्रकार आत्मा के गुण चैतन्य पूरे शरीर में रहते हैं इसलिए सिद्ध है कि आत्मा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है । जिस वस्तु के गुण जहाँ उपलब्ध नहीं होते हैं वह वस्तु वहां नहीं होती है। १. देहमात्रपरिच्छिन्नो मध्यमो जिनसम्मतः । तर्कभाषा : केशवमिश्र, पृ० १५३ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ७६ । सर्वत्र देहमध्ये जीवोऽस्ति न चैकदेशे।-पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, पृ० ७२ । पंचदशी, ६।८२ । २. सर्वार्थसिद्धि, ५।८ । तत्त्वार्थवातिक, ५।८।४। ३ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका, गा० १३७ । ४. स्वांग एव स्वसंवित्त्या स्वात्मा ज्ञानसुखादिमान् । यतः संवेद्यते सर्वः स्वदेहप्रमितिस्ततः ॥-अनगारधर्मामृत, २।३१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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