________________
१०२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
उदाहरणार्थ अग्नि के गुण जल में नहीं होते हैं, इसलिए अग्नि जल में नहीं होती है । "
आत्मा के देह प्रमाण मानने का एक कारण यह भी है कि शरीर के किसी भी भाग में होने वाली वेदना की अनुभूति आत्मा को होती है । मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, ये प्रतीतियाँ शरीर में ही दृष्टिगोचर होती हैं । किसी प्रसन्न व्यक्ति का चेहरा खिल जाता है, शरीर में उत्साह आ जाता है और दुःखी होने पर उदासी मुख पर छा जाती है अतः सुख-दुःख का प्रभाव आत्मा के साथ ही शरीर पर पड़ने से सिद्ध है कि आत्मा देह प्रमाण है । 3
आत्मा का देह प्रमाण होने का कारण उसमें प्राप्त संकोच - विस्तार शक्ति भी है । असंख्यात प्रदेशी अनन्तानन्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग में किस प्रकार रहता है ? इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि आत्मा में दीपक की तरह संकोच - विस्तार शक्ति पाई जाती है । आत्मा अपने कर्म के अनुसार जब हाथी की योनि छोड़कर चींटी के शरीर में प्रवेश करता है तो अपनी संकोच शक्ति के कारण अपने प्रदेशों को संकुचित करके उसमें रहता है और चींटी का जीव मर कर जब हाथी का शरीर पाता है तो जल में तेल की बूंद की तरह फैलकर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाता है । यदि शरीर के अनुसार आत्मा संकोच - विस्तार न करे तो बचपन की आत्मा दूसरी और युवावस्था की दूसरी माननी पड़ेगी और ऐसा मानने से बचपन की स्मृति युवावस्था में न होना चाहिए । लेकिन बचपन की स्मृति युवावस्था में होती है इसलिए सिद्ध है कि आत्मा देहप्रमाण है ।"
६
अब प्रश्न यह होता है कि आत्माओं के संकोच विस्तार का कारण क्या है ? जैन चिन्तक इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि आत्मा के संकोच - विस्तार की शक्ति का कारण कार्मण शरीर है । कार्मण शरीर जब तक आत्मा के साथ रहता है तभी तक आत्मा में संकोच - विस्तार की शक्ति पाई जाती है । जिस समय आत्मा समस्त कर्मों का क्षय करके मुक्त हो जाता है उस समय उसमें संकोच - विस्तार की शक्ति नष्ट हो जाती है । अतः संसारी आत्मा संकोच विस्तार
१. विशेषावश्यक भाष्य, १५८६; स्याद्वादमंजरी, ९, पृ० ६७ ।
२. तर्कभाषा पृ० ५२ ।
३. विस्तार से द्रष्टव्य - आत्मरहस्य, पृ० ६० ।
४. तत्त्वार्थसूत्र, ५।१६ । योगसार प्राभृत, २।१४; तत्वार्थवार्तिक, ५।१६।१ ।
५. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ० ४०९ । राजप्रश्नीय सूत्र १५२ ।
६. तत्त्वार्थसार, २३२ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org