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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १०३ शक्ति के कारण देह प्रमाण है ।' आचार्य रामानुज ने ज्ञान को संकोच-विस्तार वाला माना है । अतः आत्मा शरीर परिमाण है । देहप्रमाण आत्मा मानने पर आक्षेप और परिहार : (१) जिन भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा को देहप्रमाण नहीं माना है उन्होंने इसकी समीक्षा की है। यदि आत्मा संकोच-विस्तार वाला है तो संकुचित होकर इतना छोटा क्यों नहीं हो जाता है कि आकाश के एक देश में एक जीव रह सके ? इसी प्रकार विस्तार शक्ति के कारण सम्पूर्ण लोक में क्यों नहीं फैल जाता है ? जैन दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा के संकोच का कारण कार्मण शरीर है, इसलिए जीव कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर हो सकता है, इससे छोटा शरीर वाला जीव नहीं हो सकता है। सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीव ही सबसे छोटा है। इसी प्रकार विस्तरण शक्ति के कारण जीव अधिक से अधिक लोकाकाश के बराबर हो सकता है। आगमों में ऐसा उल्लेख है कि स्वयंभूरमण समुद्र के मध्य में रहने वाला महामत्स्य, जो हजार योजन लम्बा, पांच सौ योजन चौड़ा और ढाई सौ योजन मोटा है, सबसे बड़ा जीव है ।। (क) जैनेतर दार्शनिक कहते हैं कि मध्यम परिमाण होने से आत्मा सावयव हो जायेगी और सावयव होने के कारण उसे अनित्य मानना पड़ेगा, जो जैनों को मान्य नहीं है। उपर्युक्त दोष का निराकरण करते हुए जैन दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा . अनित्य हो सकता था जब उसके अवयव किसी अन्य द्रव्य के संघात से बने होते । क्योंकि सकारण बने हुए वस्तु के अवयव विनाशशील होते हैं। जिस पदार्थ के अवयव कारण रहित होते हैं उसके अवयव नष्ट नहीं होते हैं । जैसे परमाणु के अवयव विश्लेषण करने पर भी नष्ट नहीं होते हैं । इसी प्रकार अविभागी द्रव्य स्वरूप आत्मा के अवयव अकारण होने के कारण विश्लेषण करने पर नष्ट नहीं होते हैं । अतः द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से आत्मा नित्य एवं अविनाशी है । दूसरी बात यह है कि पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से आत्मा को कथंचित् अनित्य भी माना गया है । क्योंकि पहले जो आत्मप्रदेश शरीर सम्बद्ध थे, वे शरीर के नाश होने पर शरीर रहित प्रदेश में अवस्थित हो जाते हैं। उनका शरीर से छेद १. पंचास्तिकाय, ३२।३३ । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १० ४०० । २. प्रमेयरत्नमाला, पृ० २९७ । ३. तत्त्वार्थवार्तिक; ५।१६; ४-५ । गोम्मटसार जीवकाण्ड, ९४ । ४. वही, ९५ । भगवतीमाराधना विजयोदयाटीका, १६४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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