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________________ १०४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार हो जाने के कारण आत्मा का भी छेद मानने में कोई दोष नहीं है । यदि ऐसा न माना जाए तो कटे हुए अंग में कम्पन क्रिया की उपलब्धि नहीं होनी चाहिए। कटे हुए शरीर के भाग के आत्मप्रदेश पुनः पहले वाले आत्मप्रदेशों में आ कर मिल जाते हैं । इस बात को कमल की नाल का उदाहरण देकर मल्लिषेण ने समझाया है। अतः आत्मा को देह प्रमाण मानने पर भी आत्मा में पुनर्जन्म और मोक्षादि का अभाव नहीं आता है । इसलिए आत्मा को देह प्रमाण ही मानना चाहिए । मुक्त जीव भी अन्तिम शरीर के आकार के ही होते हैं और वे उसी आकार में विद्यमान रहते हैं । ___ केवलीसमुद्धात की अपेक्षा आत्मा का आकार : सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार जीवकांड में समुद्धात के स्वरूप विवेचन में कहा है कि "मूल शरीर को त्यागे बिना उत्तर शरीर अर्थात् तैजस और कार्मण शरीर के साथ-साथ आत्म प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्धात कहलाता है ।" समुद्धात के सात भेदों में केवलीसमुद्धात भी एक भेद है। छह माह की आयु बाकी रहने पर जिन्हें केवलज्ञान होता है वे केवली नियमतः अन्तर्मुहूर्त आयु कर्म के बाकी बचने पर और वेदनीय, गोत्र और नाम कर्म की स्थिति अधिक होने पर उनसे आयु कर्म को बराबर करने के लिए समुद्धात करते हैं। भगवती आराधना में उदाहरण द्वारा केवलीसमुद्धात को स्पष्ट किया गया है। केवलीसमुद्धात में आत्मा चौदह रज्जु चौड़े तीन लोकों में व्याप्त हो जाता है । इसलिए समुद्धात की अपेक्षा आत्मा व्यापक है।' आचार्य पूज्यपाद ने कहा भी है 'केवलो समुद्धात के समय जब जीव जीवलोक में व्यापक होता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रपटल १. तत्त्वार्थवार्तिक, ५।१६। ४.६ । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ० ४०९ । २. स्याद्वादमंजरी, ९। ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गा० ६६८ । ४. स सप्तविधः वेदनाकषायमारणान्तिकतेजोविक्रयाऽऽहारे केवलिविषयभेदात् । -तत्त्वार्थवार्तिक, १।२०।१२ । ५. ( क ) भगवतीआराधना, का० २१०९ । (ख ) धवला १११११, सूत्र ६० । ६. धवला १११।१ । सूत्र ६०, पृ० ३०२ । ७. भगवतीआराधना, २११३-१६ । ८. सर्वार्थसिद्धि, ५।८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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