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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १०५ के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर-नीचे और तिरछे सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर लेते हैं ।' "इस प्रकार केवलीसमुद्धात की अपेक्षा आत्मा व्यापक भी है, लेकिन यह कभी-कभी होता है इसलिए आत्मा को कथंचित् व्यापक मानना तो सम्भव है, लेकिन सर्वथा नहीं ।
आत्मा सक्रिय है : जैन दार्शनिक आत्मा और पुद्गल को सक्रिय मान कर शेष द्रव्यों को निष्क्रिय मानते हैं । तत्त्वार्थसूत्र के पांचवें अध्याय में एक सूत्र है :
___ "निष्क्रियाणि च" इस सूत्र की व्याख्या करते हुए पूज्यपाद ने लिखा है “धर्म-अधर्म और आकाश द्रव्य को निष्क्रिय मानने से सिद्ध होता है कि जीव और पुद्गल सक्रिय है।" अकलंकदेव आदि आचार्यों ने भी पूज्यपाद का अनुकरण करते हुए आत्मा को सक्रिय बतलाया है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गमन करना क्रिया कहलाती है। जिसके कारण आत्म-प्रदेशों में कम्पन अर्थात् परिस्पन्दन या हलन चलन होता है वह क्रिया कहलाती है। कहा भी है 'अन्तरंग और बहिरंग के कारण उत्पन्न होने वाली जो पर्याय द्रव्य को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में ले जाती है वह क्रिया कहलाती है।" जीव द्रव्य में गति, स्थिति और अवगाहन रूप क्रिया होती है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि संसारी जीवों में ही उपर्युक्त विभाव क्रिया होती है, युक्त जीवों में स्वाभाविक क्रिया होती है। अतः आत्मा सक्रिय एवं परिणामी है।
आत्मा को सक्रिय एवं परिणामी मानना जैन दार्शनिकों की अपनी विशेषता है । आत्मा को व्यापक एवं कूटस्थ नित्य माने जाने के कारण वैदिक दार्शनिकों ने उसे निष्क्रिय तथा अपरिणामी माना है । सांख्य दार्शनिकों ने आत्मा को निष्क्रिय सिद्ध करने के लिए एक तर्क यह भी दिया है कि सत्, रज और तम गुणों के कारण ही क्रिया सम्भव है और पुरुष में ये गुण नहीं होते हैं इसलिए वह निष्क्रिय है। पुरुष को निष्क्रिय मान कर उन्होंने प्रकृति को सक्रिय माना है।
१. ( क ) वही, ५।८ । ( ख ) तत्त्वार्थवार्तिक ५।८।४ । २. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति टीका, ( ख ) तत्त्वार्थवातिक १।८।२ । ३. सर्वार्थसिद्धि, ५।७। ४. धवला, १११, १। ५. सर्वार्थसिद्धि, ५।७ । तत्त्वार्थवार्तिक, ५।२२।१९ । ६. नियमसार, तात्पर्यवृत्तिटीका, १८४ । गदिठाचोमहकिरिया जीवाणं पोग्ग
लाणमेव हो।-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ५६६ ।
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