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१०६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसक दार्शनिक शरीर के समवाय सम्बन्ध से आत्मा में क्रिया मानते हैं।
आत्मा निष्क्रिय नहीं है : जैन दार्शनिक आत्मा को निष्क्रिय नहीं मानते हैं, इसलिए उन्होंने निष्क्रिय आत्मवादियों की समीक्षा करते हुए कहा है कि आत्मा को निष्क्रिय मानने से शरीर में किसी प्रकार की क्रिया न हो सकेगी। विद्यानन्द आचार्य ने कहा भी है : 'आत्मा क्रियाशील है, क्योंकि जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य के कारण अन्य द्रव्यों में क्रिया होती है इसी प्रकार आत्म द्रव्य के कारण भी अन्य पदार्थों में क्रिया होती है इसलिए आत्मा सक्रिय है।' 'भट्टाकलंकदेव ने भी कहा है : 'आत्मा को निष्क्रिय मानने से आत्मा शरीर की क्रिया में कारण उसी प्रकार नहीं हो सकेगी जिस प्रकार आकाश के प्रदेश निष्क्रिय होने से शरीर की क्रिया में कारण नहीं हैं।' दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय तथा अमूर्त मान लिया जाय तो आत्मा और शरीर में सम्बन्ध न होने के कारण परस्पर उपकारादि करना असम्भव हो जाएगा। विद्यानन्द एवं भट्टाकलंक देव का कहना है कि जिस प्रकार वायु में क्रियाशीलता दृष्टिगोचर न होने पर भी तृणादि के हिलने-उड़ने से अनुमान किया जाता है कि वायु सक्रिय है, उसी प्रकार क्रियाशीलता दृष्टिगोचर न होने पर भी क्रिया स्वभाव आत्मा के वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय या क्षयोपशम से, अंगोपांग नामक नामकर्म के उदय और विहायोगति नामक नामकर्म से विशेष शक्ति मिलने पर आत्मा के गतिशील होने पर हाथ पैरादि में क्रिया होती है । फलतः शरीरादि क्रिया देख कर आत्मा सक्रिय है, यह सिद्ध हो जाता है।
आत्मा को निष्क्रिय मानने वाले वैशेषिक आदि दार्शनिकों का कहना है कि शरीरादि द्रव्यों में प्रयत्न, धर्म, अधर्म आत्मगुणों के कारण क्रिया होती है । यदि आत्मा को सक्रिय स्वभाव वाला माना जाये तो मुक्त आत्मा को भी सक्रिय मानना पड़ेगा।
__ इसके प्रत्युत्तर में जैन चिन्तक कहते हैं कि : वैशेषिकों का उपयुक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार निष्क्रिय आकाश के साथ घट का संयोग होने १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ५७ ।
सर्वथा निष्क्रियस्यापि स्वयंमानविरोधतः ।
आत्मा हि प्रेरको हेतुरिष्टः कायादि कर्मणि ॥-वही, ५।७।१७ । २. तत्त्वार्थवार्तिक, ५७।१४ । ३. वही। ४. तत्त्वार्थश्लोकवातिक, ५।७।१८-१९; तत्त्वार्थवातिक, ५७७ ।
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