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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ८३
जाता है जिस प्रकार मंत्रादि के द्वारा अग्नि आदि की शक्ति का अभिभव या प्रतिबन्ध कर दिया जाता है।
सुषुप्ति अवस्था में चैतन्य का लोप हो जाता है, यदि यह सिद्धान्त माना जाय तो 'सुषुप्ति में चैतन्य का लोप हो गया' इसे सिद्ध करने के लिए साक्षी की आवश्यकता होगी अर्थात् यह बतलाना होगा कि इस प्रकार के ज्ञान को कोन जानता है ? वही आत्मा चैतन्य के अभाव को नहीं जान सकता है क्योंकि उस समय न्याय-वैशेषिकों ने आत्मा में ज्ञान का अभाव माना है । ज्ञान के बिना विषय को कैसे जाना जा सकता है। अतः सिद्ध है कि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा में चैतन्य विद्यमान रहता है इसलिए आत्मा चैतन्य स्वरूप है।
ज्ञान आत्मा का स्वभाव है-प्रकृति का परिणाम नहीं :
जैन दर्शन ज्ञान और चेतना में कोई भेद नहीं मानता है इसलिए इस सिद्धांत में आत्मा जिस प्रकार चैतन्य स्वरूप माना गया है उसी प्रकार ज्ञान स्वरूप भी माना गया है । यद्यपि सांख्य दार्शनिक भी आत्मा को चैतन्य स्वभाव मानते हैं लेकिन वे उसे ज्ञान स्वरूप नहीं मानते हैं। इनके मत में ज्ञान प्रधान (प्रकृति) का परिणाम (अर्थात्-बुद्धि को अचेतन मान कर ज्ञान को उसका धर्म) मानते हैं । प्रकृति और पुरुष के संसर्ग होने पर अचेतन बुद्धि में घटपटादि विषय का एवं दूसरी तरफ से चैतन्य का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण पुरुष अपने को ज्ञाता समझने लगता है, वास्तव में बुद्धि ही घटादि पदार्थों को जानती है । आत्मा (पुरुष) को ज्ञानस्वभाव न मानने का एक कारण यह भी है कि सुषुप्ति अवस्था में ज्ञान का अनुभव नहीं होता है । __ जैन दार्शनिकों ने सांख्य दर्शन के इस सिद्धान्त की कि 'आत्मा ज्ञान स्वरूप नहीं तथा ज्ञान अचेतन प्रकृति का परिणाम है', तीव्र आलोचना की है। अमितगति आचार्य ने कहा है कि यदि आत्मा को ज्ञान रहित माना जाएगा तो ज्ञानपूर्वक होने वाली क्रियाएँ अर्थात् पदार्थ को जानना आदि असम्भव हो जाएगा। 'पुरुष' को चैतन्य स्वरूप मान कर ज्ञान रहित मानना परस्पर विरुद्ध है । क्योंकि यह पहले लिखा जा चुका है कि 'चित्' धातु का अर्थ जानना होता है। यदि स्व-पर पदार्थों को जानना चैतन्य-शक्ति का स्वभाव नहीं है तो चेतना शक्ति
१. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८४९, प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ३२२ । २. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८५० । ३. क्रियाणां ज्ञानजन्यानां तत्राभावप्रसंगतः ।-श्रावकाचार (अमितगति),
४।३१ ।
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