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________________ ८२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार । सुषुप्ति अवस्था में स्वाद आदि का एवं उनके सुख का संवेदन होता है ' । सोकर जागने के बाद 'मैं सुखपूर्वक सोया' इस प्रकार का अनुभव सिद्ध करता है कि सुषुप्ति अवस्था में चैतन्यता विद्यमान रहती है । यदि सुषुप्ति अवस्था में चैतन्य विद्यमान न रहता तो 'मैं सुखपूर्वक सोया' 'इतने काल तक निरन्तर सोया,' 'इतने काल तक सान्तर सोया' इस प्रकार जो स्मरण होता है वह नहीं होना चाहिए, लेकिन इस प्रकार का स्मरण होता है इससे सिद्ध है कि सुषुप्ति अवस्था में चेतना नष्ट नहीं होती है कुमारिल भट्ट एवं सांख्य दर्शन में भी कहा है कि 'मैं जड़ होकर सो गया था' इस जड़ता की स्मृति होती है और यह स्मृति बिना अनुभव के सम्भव नहीं है । अतः उपर्युक्त प्रकार की स्मृति सिद्ध करती है कि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा में चैतन्य विद्यमान रहता है । प्रभाचन्द्र ने भी प्रमेयकमलमार्तण्ड में कहा है कि 'ज्ञान के अभाव में स्मृति नहीं हो सकती है क्योंकि ज्ञात वस्तु का ही स्मरण होता है और वह स्मरण भी अपने विषय के ज्ञान के पश्चात् ही होता है, जैसे घटादि का स्मरण । यदि सोने के सुख के स्मरण को ज्ञान हुए बिना स्वीकार किया जाएगा तो घटादि का स्मरण भी घटादि के ज्ञान किये बिना मानना होगा, और ऐसा मानना ठीक नहीं है । अतः सिद्ध है कि स्वादादि का सुषुप्ति में ज्ञान होता है और उस अवस्था में चैतन्य आत्मा में वर्तमान रहता है । सुषुप्ति अवस्था की तरह मत्तमूर्च्छादि अवस्थाओं में भी ज्ञान का सद्भाव सिद्ध होता है, क्योंकि मत्तमूर्च्छादि के बाद अनुभव होता है कि 'मूर्च्छादि अवस्था में मैंने कुछ भी अनुभव नहीं किया" । यद्यपि जागृत अवस्था की तरह सुषुप्ति अवस्था रहता है तो भी दोनों अवस्थाओं को समान नहीं जागृत अवस्था में ज्ञान प्रकट रूप में और सुषुप्ति विद्यमान रहता है । निद्रादर्शनावरणीयकर्म ज्ञान पर इसलिए ज्ञान बाह्य और आध्यात्मिक विषय के विचार से १. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८४८; विवरणप्रमेयसंग्रह, पृ० ६० । २. ही । ३. पंचदशी, ६।९६ । ४. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ३२३ । ५. ९. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८४८ । प्रमेयकमलमार्तण्ड, ३२३ । पृ० ५४० । ६. विशेष इति । १६३ । प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ३२३ । ज्ञान आत्मा में विद्यमान कहा जा सकता है, क्योंकि अवस्था में अप्रकट रूप में आवरण डाल देता है रहित उसी प्रकार हो Jain Education International न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८४७ । तर्कसंग्रहपंजिका, सन्मतितर्क टीका, पु० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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