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________________ - आत्म-स्वरूप-विमर्श : ८१ ... यदि आत्मा में चैतन्य समवाय सम्बन्ध से उसी प्रकार रहता है जिस प्रकार फ्ट में रूपादि समवाय से रहते हैं तब आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा। क्योंकि जिस प्रकार रूपादि के नष्ट हो जाने पर उसके आश्रयस्वरूप घट का नाश हो जाता है उसी प्रकार चैतन्य के नष्ट होने पर उसके आश्रयस्वरूप आत्मा भी नष्ट हो जाएगी। अतः आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा जो न्याय वैशेषिक दर्शन के विरुद्ध है। आत्मा को ज्ञानस्वरूप मानने पर आत्मा और ज्ञान में कर्ता-करण भाव सम्बन्ध नहीं बनता, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार 'अग्नि उष्णता से पदार्थों को जलाती है' इस ज्ञान में अग्नि और उष्णता में कर्ता-करण भाव बन जाता है, इसी प्रकार आत्मा और ज्ञान में कर्तृकरण भेद बन सकता है । स्याद्वादमंजरी में भी कहा है कि 'सर्प अपने आप को घेरता है' जिस प्रकार इस वाक्य में कर्ता-करण में अभिन्न होने पर भी कर्ता-करण भाव बन जाता है इसी प्रकार भात्मा और ज्ञान के अभिन्न होने पर दोनों में कर्ता-करण भाव सम्बन्ध बन सकता है । अतः ज्ञान आत्मा से भिन्न न होकर आत्मा ही ज्ञानस्वरूप है। सुषुप्ति अवस्था में चैतन्य का अनुभव होता है : प्रभाकर एवं न्याय-वैशेषिकों का कहना है कि सुषुप्ति अवस्था में चैतन्य का अनुभव नहीं होता है इसलिए आत्मा चैतन्य स्वरूप नहीं है। यदि सुषुप्ति अवस्था में आत्मा में ज्ञान या चैतन्य विद्यमान रहता तो जागृत अवस्था की तरह सुषुप्ति अवस्था में भी वस्तुओं का ज्ञान होना चाहिए, मगर होता नहीं, इसलिए सिद्ध है कि उस समय आत्मा में ज्ञान या चैतन्य विद्यमान नहीं रहता है। जैन, भाट-मीमांसक एवं सांख्य दार्शमिक न्याय-वैशेषिक के उपर्युक्त कथन से सहमत नहीं हैं। इनका मत है कि सुषुप्ति अवस्था दर्शनावरणीय कर्म की वह अवस्था है जिसमें कर्मप्रकृति चैतन्य को उसी प्रकार ढाँक लेती है जिस प्रकार बादल सूर्य को ढांक लेता है किन्तु उस समय भी चैतन्य सूक्ष्म और निर्विकल्प रूप में आत्मा में विद्यमान रहता है। इसी प्रकार सुषुप्ति अवस्था में चेतना नष्ट नहीं होती किन्तु कर्म के आवरण के कारण कुछ धूमिल हो जाती है। ___-व्यापकत्वादेकज्ञानेन सर्वेषां विषयावबोधप्रसंगः । -स्याद्वादमंजरी, ८।। १. वही । २. तत्त्वार्थवार्तिक, १।१५ । ३. स्याद्वादमंजरी, ८।। ४. पंचदशी, ६१८९-९० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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