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८० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
और व्यापक पदार्थ है । इसलिए चैतन्य का समवाय सम्बन्ध जिस प्रकार आत्मा के साथ होता है उसी प्रकार आकाशादि के साथ भी रहने के कारण आकाशादि को भी आत्मा की तरह चैतन्यवान् मानना चाहिए । जिस प्रकार आत्मा को प्रतीति होती है कि 'मुझ आत्मा में ज्ञान है' इसी प्रकार आकाशादि को भी प्रतीति होनी चाहिए। अतः आत्मा को जड़ स्वरूप मानने पर उसे 'मैं ज्ञाता हूँ इसकी प्रतीति घटादि की तरह नहीं हो सकती है । यदि न्यायवैशेषिक किसी प्रकार से इस प्रकार की प्रतीति भात्मा में मानते हैं तो उसी प्रकार घटादि को भी उसकी प्रतीति होना मानना पड़ेगा, लेकिन ऐसा कोई मानता नहीं है । 'मैं चेतन हूँ' इस प्रकार की प्रतीति आत्मा को ही होती है । इसलिए सिद्ध है कि आत्मा कथंचित् चेतन स्वरूप है ३ ।
दूसरी बात यह भी है कि अचेतन पदार्थ को चैतन्य के समवाय से चैतन्यवान् मानने पर अनवस्था दोष आता है, क्योंकि चैतन्यगुण को भी किसी अन्य के सम्बन्ध से चैतन्य मानना होगा । यदि चेतनत्व के कारण चैतन्यगुण में चैतन्य होता तो फिर उस चेतनत्व के लिए एक दूसरे चेतनत्व की कल्पना करनी होगी और इस प्रकार अनन्त चेतनत्व की कल्पना करने में अनवस्था दोष आएगा । यदि इस दोष से बचने के लिए चेतना गुण में स्वयं चैतन्यता रहती है, ऐसा माना जाए तो अग्नि के उष्ण गुण की तरह आत्मा को भी स्वतः चैतन्य स्वरूप मान लेना चाहिए । मल्लिषेण ने भी इसी प्रकार विवेचन किया है, अतः सिद्ध है कि आत्मा चैतन्य स्वरूप है, चैतन्य और आत्मा भिन्न-भिन्न नहीं है" । चेतना के समवाय सम्बन्ध से आत्मा को चैतन्य रूप मानने पर एक दोष यह भी आता है कि एक आत्मा को ज्ञान होने से समस्त आत्माओं को पदार्थों का ज्ञान हो जाएगा। क्योंकि आत्मा व्यापक है तथा समवाय नित्य, एक तथा व्यापक होने के कारण समस्त पदार्थों के साथ उसका सम्बन्ध रहता है । अतः इस प्रकार सभी सर्वज्ञ हो जायेंगे । ऐसा मानना अभीष्ट एवं तर्क-संगत नहीं है ।
१. तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक, १९६ ।
२. वही, १९७ - १९८ ।
३. तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक, १९९९-२०३ । षडदर्शनसमुच्चय, कारिका ४९ । "यदि च प्रदीपात् प्रकाशस्यात्यन्त भेदेऽपि –, तदा घटादीनामपि — " स्याद्वादमंजरी, का० ८ ।
४. तत्त्वार्थवार्तिक १ । १ । ११ ।
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५. स्याद्वादमंजरी, ८ ।
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