SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : ७९ सर्वथा भिन्न मानने पर आत्मा और ज्ञान दोनों अचेतन हो जाएगें। जैन आचार्यों ने उपर्युक्त कथन की टीका करते हुए कहा है कि जिस प्रकार अग्नि और उष्ण गुण दोनों को भिन्न-भिन्न मानने से अग्नि दहन आदि कार्य नहीं कर सकता है उसी प्रकार ज्ञान से भिन्न आत्मा भी पदार्थ को नहीं जान सकेगा। दूसरी बात यह है कि ज्ञान आत्मा से भिन्न होने के कारण निराश्रित हो जाएगा, इसलिए वह कुछ भी नहीं कर सकेगा। विद्यानन्द ने कहा है कि अनुपयोग स्वरूप मानने पर आत्मा को मोक्ष मार्ग जानने की अभिलाषा न होगी । आत्मा चैतन्य के समवाय सम्बन्ध से चैतन्यवान् नहीं है : आत्मा को जड़ मान कर चैतन्य के सम्बन्ध से आत्मा चैतन्यवान् होता है, ऐसा न्यायवैशेषिकों का कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा जड़ स्वरूप आत्मा समवाय सम्बन्ध से भी ज्ञानी नहीं हो सकता है। यहां पर कुन्दकुन्दाचार्य प्रश्न करते हैं कि आत्मा ज्ञान नामक गुण से सम्बद्ध होने के पहले ज्ञानी था या अज्ञानी ? यदि आत्मा ज्ञान से सम्बन्ध के पहले ज्ञानी था तब ज्ञान के समवाय सम्बन्ध से आत्मा के ज्ञानवान् होने की कल्पना करना व्यर्थ ही है । अब यदि माना जाए कि आत्मा ज्ञान समवाय सम्बन्ध के पहले अज्ञानी था तो प्रश्न होता है कि वह अज्ञानी क्यों था? क्या आत्मा अज्ञान के समवाय सम्बन्ध होने से अज्ञानी था या आत्मा अज्ञान स्वरूप होने से अज्ञान के समवाय सम्बन्ध से आत्मा को अज्ञानी मानना तो ठीक नहीं है क्योंकि जब आत्मा पहले से अज्ञानी हो है तब उसके साथ अज्ञान सम्बन्ध व्यर्थ ही है। यदि आत्मा और अज्ञान का एकत्व होने से आत्मा अज्ञानी है तो उसी प्रकार ज्ञान के साथ भी आत्मा का एकत्व सिद्ध होता है । यदि अचेतन आत्मा चैतन्य के समवाय सम्बन्ध से चैतन्यवान् हो जाता है तो घटादि पदार्थ भी जड़ होने से आत्मा की तरह चैतन्यवान् होने चाहिए लेकिन ऐसा न तो नैयायिक मानते हैं और न अनुभव से ही प्रतीत होता है । विद्यानन्दि ने भी कहा कि समवाय एक नित्य १. पंचास्तिकाय, ४८; तत्त्वार्थ वार्तिक, १. १. ६ । २. पंचास्तिकाय, तात्पर्य वृत्ति, तत्त्वार्थ वार्तिक, २. ८. ४ । ३. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १९३ । ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १७८ । ५. ण हि सो समवायादो अत्यंतरिदो दु णाणदो णाणी। अण्णाणीति य वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि ॥-पंचास्तिकाय, ४९ । ६. तत्त्वार्थवार्तिक, १११९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy