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७८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
भट्टाकलंक देव ने इस मत की समीक्षा करते हुए कहा है कि यदि ज्ञान के सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानवान् उसी प्रकार है जिस प्रकार दंड के सम्बन्ध से पुरुष दंडी या धन के सम्बन्ध से धनवान्, तब ज्ञान और आत्मा का अस्तित्व अलग-अलग उसी प्रकार होना चाहिए जिस प्रकार पुरुष और दंड का अस्तित्व अलग-अलग होता है । लेकिन ज्ञान और आत्मा दोनों स्वतन्त्र रूप से अलगअलग उपलब्ध नहीं होते हैं, इसलिए सिद्ध है कि ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है । मल्लिषेण ने भी जड़ात्मवाद की समीक्षा में कहा है कि ज्ञान और आत्मा को सर्वथा भिन्न मानने से आत्मा पदार्थ को नहीं जान सकेगा क्योंकि जिस प्रकार मैत्र नामक व्यक्ति से भिन्न चैत्र नामक व्यक्ति के ज्ञान से मैत्र को पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है उसी प्रकार आत्मा से भिन्न ज्ञान से भी उसकी आत्मा को पदार्थों का ज्ञान नहीं होना चाहिए लेकिन आत्मा पदार्थों को जानता है, इसलिए सिद्ध है कि आत्मा और ज्ञान दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न नहीं हैं? |
आत्मा को अचेतन मानना इसलिए भी ठीक नहीं है क्योंकि किसी को भी इस प्रकार का अनुभव नहीं होता है कि 'मैं अचेतन हूँ और चेतना के समवाय सम्बन्ध से चेतनवान् हूँ ३" । इसके विपरीत सभी को इस प्रकार का ज्ञान होता है कि मैं चेतन स्वरूप हूँ । आत्मा का चैतन्य स्वभाव स्वीकार किये बिना "मैं ज्ञाता हूँ" इस प्रकार की प्रतीति उसी प्रकार नहीं हो सकती है जिस प्रकार अचेतन घट को नहीं होती है । अतः सिद्ध है कि आत्मा अचेतन स्वभाव नहीं है, बल्कि चैतन्य स्वरूप है अन्यथा पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकेगा । गुणभद्राचार्य ने भी यही कहा हैं ।
यदि आत्मा और चैतन्य-ज्ञान को परस्पर सर्वथा भिन्न माना जायगा तो सा और विन्ध्य पर्वत की तरह सम्बन्ध नहीं बन सकेगा " । आचार्य कुन्दकुन्द ने न्यायवैशेषिक मत की समीक्षा करते हुए कहा है कि ज्ञानी और ज्ञान को
ज्ञानस्थाप्यात्म
१. आत्मनोऽपि ज्ञानगुणयोगात् प्रागसत्वं विशेषलक्षणाभावात् द्रव्यसम्बन्धात् प्रागसत्वं निराश्रयगुणाभावात् । नचासतोः सम्बन्धो दृष्ट इष्टो वा तत्त्वार्थ वार्तिक, १. १. ७ ।
२. ज्ञानमपि नैव विषयपरिच्छेदः स्यादात्मनः । - स्याद्वादमंजरी कारिका, ८ । ३. न हि जातुचित् स्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगाह चेतनः । - वही, ५९ । ४. अनुपयोगस्वभाव आत्मा नार्थपरिच्छेदकर्ता, अचेतनत्वात् गगनवत् । - षडदर्शनसमुच्चय, टीका, कारिका ४९ ।
५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १७९ ।
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