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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ७७ आत्मा और ज्ञान में कथंचित् भेद भी है क्योंकि आत्मा गुणी और ज्ञान गुण है, आत्मा लक्ष्य और ज्ञान लक्षण है । अतः व्यवहार नय की अपेक्षा से संज्ञा और संज्ञी, लक्ष्य और लक्षण दोनों में भेद है। कहा भी है-"जीव और ज्ञान में गुण-गुणी की अपेक्षा भेद न किया जाए तो जो जानना है वह ज्ञान है और देखना दर्शन है, यह भेद किस प्रकार होगा ?" यदि ज्ञान को जीव से सर्वथा अभिन्न माना जाएगा तो ज्ञान और सुखादि गुणों में कोई अन्तर नहीं रहेगा । अतः ज्ञान आत्मा से कथंचित् भिन्न भी है । चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, आगन्तुक नहीं : ___ चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक गुण है, आगन्तुक या बाह्य नहीं। आत्मा के इस गुण के विषय में भारतीय दर्शन में तीन प्रकार की विचारधाराएं परिलक्षित होती हैं। पहली विचारधारा न्याय-वैशेषिक और प्रभाकर भट्ट दार्शनिकों की है । थे आत्मा को जड़ स्वरूप मानकर चैतन्य को उसका आगन्तुक गुण मानते हैं। अर्थात् इनके मत में आत्मा चैतन्य स्वरूप नहीं बल्कि चैतन्यवान् है । दूसरी विचारधारा कुमारिल भट्ट की है। कुमारिल भट्ट यद्यपि चैतन्य को आत्मा का स्वाभाविक गुण मानते हैं लेकिन साथ ही वे उसे जड़ स्वरूप मानते हैं। तीसरी विचारधारा वाले सांख्य, वेदान्त एवं जैन दार्शनिक चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण न मानकर उसका स्वाभाविक गुण मानते हैं। जैन दर्शन में चैतन्य और ज्ञान को सांख्यों की तरह भिन्न-भिन्न न मानकर दोनों को अभिन्न और एक माना गया है। इसका विवेचन करने के पहले यह सिद्ध करना अनिवार्य है कि चैतन्य आत्मा से भिन्न एवं उसका आगन्तुक गुण नहीं है और न जड़स्वरूप आत्मा चैतन्य के समवाय सम्बन्ध से चैतन्यवान होता है। चैतन्य आत्मा उसी प्रकार चैतन्य स्वरूप है जिस प्रकार अग्नि उष्ण स्वभाव वाली है। द्रव्य का अपने गुणों से भिन्न और गुणों का अपने द्रव्य से भिन्न अस्तित्व नहीं पाया जाता है। आत्मा भी एक द्रव्य है और चैतन्य उसका गुण होने के कारण चैतन्य आत्मा से पृथक् नहीं पाया जाता है । यही कारण है कि ज्ञान और आत्मा दोनों एक ही कहे गये हैं।
णाणं अप्पत्त मदं वट्ठदि णाणं विणा ण अप्पाणं ।
तह्मा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ।।-प्रवचनसार, ११२७ । १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १८० । २. षड्दर्शनसमुच्चय, टीका, कारिका ४९ । ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १७८ । ४. प्रवचनसार, १२७ ।
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