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________________ ७६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार पयोग का विशेष विवेचन ज्ञान-मार्गणा के प्रसंग में किया जायगा । चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार दर्शनोपयोग के भेद हैं।' प्रारम्भ के तीन दर्शनोपयोगों को कुन्दकुन्दाचार्य ने विभावदर्शनोपयोग और अन्तिम को स्वभावदर्शनोपयोग कहा है। इसका विवेचन भी हम मार्गणाओं में करेंगे । यहाँ ध्यातव्य है कि जैन साहित्य में उपयोग के अन्य तीन भेदों का भी विवेचन प्राप्त होता है-शुभ, अशुभ और शुद्ध । किन्तु यह उपयोग का भेद मात्र आत्मा के भावों को लेकर ही किया गया है । प्रशस्त भावों को शुभ, अप्रशस्त भावों को अशुभ और राग-द्वेष रहित आत्मा के निर्मल परिणामों को शुद्ध उपयोग कहा गया है। प्रकृत में जिस उपयोग की चर्चा की गयी है वह चैतन्यात्मक उपयोग है। ज्ञान आत्मा से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है : ऊपर ज्ञान दर्शन को आत्मा से कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न कहा गया है। यह कथन विवेचनीय है। जैन दर्शन की मान्यता है कि ज्ञान आत्मा का गुण है । गुण अपने गुणी से न सर्वथा भिन्न होता है और न सर्वथा अभिन्न होता है बल्कि कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होता है। क्योंकि गुण से भिन्न गुणी और गुणी से भिन्न गुण की सत्ता असम्भव है। इसी सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान अपने गुणी आत्मा से न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न है । ज्ञान आत्मा से कथंचित् अभिन्न है, क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। निश्चय नय की दृष्टि से जो ज्ञान है वही आत्मा है और जो आत्मा है वही ज्ञान है। अतः दोनों को पृथक् नहीं किया जा सकता है। यदि आत्मा और ज्ञान कथंचित् अभिन्न न हों तो आत्मा का निश्चयात्मक स्वभाव न होने से आत्मा का अभाव सिद्ध हो जायेगा और ज्ञानादि निराश्रय होने से उनकी भी सत्ता नहीं रहेगी। क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा और आत्मा से भिन्न ज्ञान कहीं उपलब्ध नहीं होता है । अतः आत्मा और ज्ञान कथंचित् अभिन्न है। १. पंचास्तिकाय, ४२ । २. नियमसार, १३-१४ । ३. (क) प्रवचनसार, ११९ । (ख) द्रव्य संग्रह टीका, ६, पृ० १८ । ४. सर्वार्थसिद्धि, २।८।। ५. पञ्चास्तिकाय, ४४-४५ । ६. वही, ५१, ५२। ७. पंचास्तिकाय, ४३ । षड्दर्शनसमुच्चय, कारिका ४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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