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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ७५ सूत्र', एवं अमितगति श्रावकाचार२ में भी आत्मा को चैतन्य-उपयोगस्वरूप, अनादिनिधन, ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता, देह-प्रमाण, संसारी, कर्म रहित होने पर ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला, सिद्ध, प्रदीप की तरह संकोच-विस्तार धर्मवाला, अमूर्तिक, महान्, सूक्ष्म, स्वयम्भू, निर्बाधसिद्ध, स्थिति, उत्पत्ति एवं विनाश स्वरूप वाला कहा गया है। धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में आत्मा को अमूर्तिक, निर्बाध, कर्ता, भोक्ता, चेतन, कथंचिद् एक और कथंचिद् अनेक, शरीर प्रमाण तथा शरीर से पृथक, ऊर्ध्वगामी तथा उत्पादव्ययध्रुव स्वरूप कहा है । उपनिषदों में भी इसी प्रकार आत्मा का स्वरूप उपलब्ध है। जैन दार्शनिक ग्रन्थों में आत्मा के उपयुक्त स्वरूप का विशद् विवेचन उपलब्ध होता है ।
आत्मा का उपयोग स्वरूप :
आत्मा का स्वरूप उपयोग है। ज्ञान-दर्शन उपयोग कहलाता है।" आत्मा जिसके द्वारा जानता है उसे ज्ञान और जिसके द्वारा देखता है उसे दर्शन उपयोग कहा गया है। ये दोनों उपयोग आत्मा से कथंचित् अभिन्न हैं। आत्मा को छोड़ कर उपयोग अन्यत्र कहीं नहीं रहता है इसलिए उपयोग आत्मा से कथंचित् अभिन्न और चूंकि उपयोग आत्मा का स्वभाव है, इसलिए वह आत्मा से कथंचित् भिन्न है । ज्ञानोपयोग को साकार-उपयोग और दर्शनोपयोग को अनाकार उपयोग कहा गया है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्याय और केवलज्ञान ये प्रथम ज्ञानोपयोग के पांच भेद हैं। प्रथम चार ज्ञानोपयोग सादि और भ्रांत होते हैं । इन्हें विभाव ज्ञानोपयोग भी कहते हैं । अन्तिम केवलज्ञानोपयोग सादि और अनन्त होता है। इसे स्वभाव ज्ञानोपयोग भी कहते हैं।' ज्ञानो
१. उत्तराध्ययन सूत्र, २०१३६ । २. श्रावकाचार : अमितगति, ४।४६ । ३. धर्मशर्माभ्युदय, ४।७३-५, २१।१०-१ । ४. गुणान्वितो यः फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव चोपभोक्ता।
स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्मा संचरति स्वकर्मभिः ॥ श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५७ ५. (क) पंचास्तिकाय, ४० । (ख) नियमसार, १० ।
(ग) तत्त्वार्थ सूत्र, २१८, ९ । ६. तत्त्वार्थसार, २।११, १२ । ७. (क) पञ्चसंग्रह, १७८ । (ख) सर्वार्थसिद्धि, २।९। ८. नियमसार, १२। ९. वही, ११ ।
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