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________________ ७४ : जैनदर्शन में आत्म- विचार महान् तथा केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्त सुखरूप, अनन्त चतुष्टय स्वरूप है' । अशुद्धात्म स्वरूप विवेचन : व्यवहार नय की दृष्टि से अशुद्ध या संसारी आत्मा का स्वरूप बतलाया गया है । इस दृष्टि से अध्यवसाय आदि कर्म से विकृत भावों को आत्मा कहा है । जीव के एकेन्द्रियादि भेद, गुणस्थान, जीवसमास एवं कर्म के संयोग से उत्पन्न गौरादि वर्ण तथा जरादि अवस्थाएँ और नर नारकादि पर्याय अशुद्ध आत्मा की होती हैं । व्यवहारनय की दृष्टि से ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा के कहलाते हैं । कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि आत्मा चैतन्य तथा उपयोग स्वरूप, प्रभु, कर्ता, देहप्रमाण, अमूर्तिक एवं कर्मसंयुक्त है । जीव सबको जानता है, देखता है, सुख चाहता है, दुःख से डरता है, शुभ-अशुभ कर्म करता है और उनके फल को भोगता है । षड्दर्शनसमुच्चय " में हरिभद्र ने भी कहा है कि जोव चैतन्यस्वरूप है, वह ज्ञानदर्शन आदि गुणों से भिन्न एवं अभिन्न भी है, जीव मनुष्यादि विभिन्न पर्यायों को धारण करता है । वह शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं सुख-दुःख आदि फलों का भोक्ता है । द्रव्यसंग्रह', उपासकाध्ययन ज्ञानार्णव', आदिपुराण', उत्तरपुराण, उत्तराध्ययन ७ , १. अध्यात्म रहस्य, २२ । समयसार, आ०, का० ७ । प्रवचनसार, २. ९९१०० | तत्त्वानुशासन, १२०, १२१ | नियमसार, ९६ - १८१ । इष्टोपदेश, २१ । २. समयसार, ५६-६७ । ३. पंचास्तिकाय, २७ ॥ ४. वही, १२२, भाव पाहुड़, १४७ । ५. तत्र ज्ञानादि धर्मेभ्यो भिन्नाभिन्नो विवृत्तिमान् । शुभाशुभ कर्म कर्त्ता भोक्ता कर्मफलस्य च ॥ चैतन्यलक्षणो जीवा । —कारिका, ४८-४९ । ६. द्रव्य संग्रह, २ । ७. ज्ञातादृष्टामहान्सूक्ष्मः कृतिभुक्त्योः स्वयंप्रभुः । भोगायतन मात्रोऽयं स्वभावदूर्ध्वगः पुमान् ॥ उपासकाध्ययन, ३।१०४ । ८. ज्ञानार्णव, ६।१७ । ९. आदिपुराण, २४।९२, ३९३ । १०. उत्तरपुराण, ६७।५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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