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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : ७३ अवस्थाएँ हुआ करती हैं उन्हें मार्गणा कहते हैं, ये चौदह होती हैं । अतः कर्मरहित शुद्धात्मा के मार्गणाएं नहीं होती हैं 1), शुद्धात्मा के न कोई गुणस्थान हैं (अशुद्धता को क्रमशः घटाते हुए शुद्धता को उपलब्ध करते हुए मोक्ष महल के ऊपर चढ़ने के लिए जो श्रेणियाँ या पद हैं, वे गुणस्थान कहलाते हैं। ये गुणस्थान १४ होते हैं, जो मोहनीय कर्म और योगों की अपेक्षा से मिथ्यात्वादि कहलाते हैं, शुद्धात्मा के सम्पूर्ण कर्म और योग आदि न होने से इनके गुणस्थान होने का प्रश्न ही नहीं उठता है ।), न कोई जीव स्थान है (जीवों की जातियों की अपेक्षा से जो संग्रह या समूह किये जाते हैं, वे जीवस्थान कहलाते हैं।), आत्मा के न कोई लब्धिस्थान हैं' (सम्यक्त्व को प्राप्त करने के जो साधन-क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य-ये करणलब्धि स्थान और संयम को बढ़ानेवाली संयमलब्धि स्थान आत्मा में नहीं है।), न इस मारमा के कोई बंधस्थान है, न कोई उदयस्थान है, इस आत्मा में न कोई स्पर्श है, न रस है, न वर्ण है, न गंध है, न शब्दादि है, किन्तु यह आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभाव वाला और निरंजन स्वरूप है । सिद्धावस्था में जिस प्रकार सिद्ध मल रहित और ज्ञान स्वरूप हैं, उसी प्रकार से मलरहित, निरंजन-निर्विकार आत्मा हमारे शरीर में व्याप्त है। वह अनन्त ज्ञानादि गुणों से पूर्ण, शुद्ध, अविनाशी, एक निरालम्ब स्वरूप (स्वयंभू) अविनाशी, नित्य एवं अमूर्तिक आत्मा है। • इसी प्रकार से विभिन्न आचार्यों ने निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्धात्मा के स्वरूप का विवेचन किया है। अतः निश्चयनय की दृष्टि से संक्षेप में आत्मा चैतन्य उपयोग स्वरूप", स्वयंभू, ध्रुव, अमूर्तिक, सिद्ध, अनादिनिधन, अतीन्द्रिय, अजर, अमर, ज्योतिस्वरूप, अनन्त, रूपादिरहित, वचनातीत, अविनाशी, अव्यक्त, अखंड प्रदेशी, अचल, सत्, चित्, आनन्दस्वरूप, सर्वोत्तम, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, १. देवसेन : तत्त्वसार, १८-२० २. फासरसरुवगंधा सहादीया स जस्स. णत्थि पुणो । सुद्धो चेयण भावो णिरंजणो सो अहं भणिओ।। -वही, २१ । ३. वही, २६ । ४. वही, २७, २८ । ५. पंचास्तिकाय, १६, १०९, १२४; प्रवचनसार, ३५; नियमसार, १०; मूलाचार, ५।३६; भगवतीसूत्र, २.१०; तत्त्वार्यसूत्र, २.८: भावपाहुड़, ६२; सर्वार्थसिद्धि, ११४, पृ० ११; पंचाध्यायी, ३०, १९२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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