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७२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
हूँ' । मैं सत् द्रव्यस्वरूप हूँ, चैतन्य रूप हूँ, ज्ञाता हूँ, द्रष्टा हूँ, उदासीन हूँ, अपने ( कर्मानुसार ) प्राप्त शरीर परिमाण वाला हूँ, और उस शरीर को छोड़ने के बाद आकाश के समान अमूर्तिक हूँ । जो कभी कुछ जानता नहीं हैं, जिसने कभी कुछ जाना नहीं है और जो न कभी कुछ जानेगा वह शरीरादि मैं ( आत्मा ) नहीं हूँ जिसने कभी जाना है, जानता है और जानेगा ऐसा चेतन लक्षण वाला मैं हूँ । यह संसार स्वयं मेरे लिए न तो इष्ट है, न मुझे इससे कोई द्वेष है, किन्तु उपेक्षा योग्य है । इसी प्रकार से यह आत्मा भी स्वभाव से न राग करने वाला है और न द्वेष करने वाला है किन्तु उपेक्षा करने वाला वीतरागी है । 'मैं' समस्त कर्म भावों से भिन्न ज्ञानस्वभाव और उदासीन हूँ । इस प्रकार आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना चाहिए रे । सब जीवों का यह स्वरूप है कि जिस तरह सूर्य मण्डल का प्रकाशन किसी दूसरे पदार्थ के द्वारा न होकर स्वयं अपने आप प्रकाशित होता है और सभी को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार आत्मा भी स्व-पर पदार्थों का प्रकाशन करने वाला है ।
तत्त्वसार में आचार्य देवसेन ने भी शुद्ध आत्मा का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है कि5- आत्मा दर्शन ज्ञान स्वभाव प्रधान है, असंख्यात प्रदेशी है, मूर्ति रहित अर्थात् अमूर्तिक है, स्वदेहपरिमाण" है । शुद्ध आत्मा में न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है, न शल्य है, न लेश्याएं हैं, न जन्म है, न जरा है, न मरण है, इसलिए मैं निरंजन आत्मा हूँ । शुद्धात्मा के कोई टुकड़े या भेद नहीं हैं ।
समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन, स्फटिक इन छः संस्थानों में से कोई भी संस्थान आत्मा के नहीं हैं ( ये छः संस्थान शरीर के होते हैं ।), न कोई मार्गणा है (कर्मोदय के कारण संसारी जीवों की जो विभिन्न
१. अचेतनं भवेन्नाऽहं नाऽहमभ्यस्म्यचेतनम् ।
ज्ञानात्माऽहं न मे कश्चिन्नाऽहमन्यस्य कस्यचित् ।। - तत्त्वानुशासन, १५० ।
२. सद्द्रव्यमस्मि विदहं ज्ञातादृष्टा सदाऽप्युदासीनः ।
स्वोपात्तदेहमात्रस्ततः परंगगनवदमूर्त्तः ॥ - वही, १५२ ।
३. वही, १५४-१६४ ।
४. स्वरूपं सर्वजीवानां परस्माद प्रकाशनम् ।
भानु-मण्डलवत्तेषां परस्मादप्रकाशनम् ॥ वही, २३५ ।
५. दंसणणाण पहाणी असंखदेसो हु मुत्तिपरिहीणो ।
सहिदेहमाणो णमव्वो एरिसो अप्पा । - तत्त्वसार टीका, १७ ।
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