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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ७१
रहता है' । योगेन्दु देव ने योगसार में कहा है कि जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है । आत्मा शुद्ध, सचेतन, बुद्ध, जिन और केवल - ज्ञान स्वभाव वाला है । आत्मा कषाय, संज्ञारहित, अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वोर्यसहित, दश प्राणों से रहित, क्षमादि दश धर्म और दश गुणसहित अकेला एवं मन-वचन-काय से रहित है । आत्मा ही अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, मुनि, शिव, शंकर, विष्णु, रुद्र, बुद्ध, जिन, ईश्वर, ब्रह्मा एवं अनन्त स्वरूप है ।
कुलभद्राचार्य ने भी सारसमुच्चय में पद्मनन्दि की तरह शुद्धात्मा का स्वरूप बतलाया है" ।
रामसेनाचार्य ने शुद्ध आत्मा का निश्चय नय की दृष्टि से स्वरूप बतलाते हुए कहा है – मैं शुद्ध आत्मा ( निश्चय नय की दृष्टि से ) चेतन हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ, अमूर्तिक ( स्पर्श रसगंधवर्णरहित) हूँ, सिद्धरूप हूँ, ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला हूँ | मैं अन्य ( परपदार्थरूप ) नहीं हूँ, मैं अन्य (सांसारिक पदार्थ) नहीं हूँ, मैं सांसारिक पदार्थों का सम्बन्धी नहीं हूँ, न अन्य ( सांसारिक पदार्थ) मेरे हैं, अन्य अन्य है ( सांसारिक पुद्गल पदार्थ - पुद्गल पदार्थ ही हैं, वे आत्मस्वरूप नहीं हैं) । 'मैं' 'मैं' ही हूँ, अन्य पुद्गल पदार्थों का पुद्गल पदार्थों से ही सम्बन्ध है, मैं ( आत्मा ) का आत्मा ही सम्बन्धी है । अर्थात् — आत्मा और पुद्गल पदार्थ विभिन्न विभिन्न अन्य है, मैं अन्य हूँ, मैं चेतन हूँ, शरीर अचेतन है, नाशवान है, मैं अविनाशी हूँ। मैं ( आत्मा ) कभी अचेतन और न कोई भी अचेतन पदार्थ 'मैं' ( आत्मा ) हो सकता है, मैं ( आत्मा ) ज्ञान स्वरूप हूँ, कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है और न 'मैं' किसी दूसरे पदार्थ का कोई
स्वरूप वाले हैं । शरीर शरीर अनेक रूप है,
एक रूप हूँ, शरीर पदार्थ नहीं होता हूँ
१. एकत्व सप्तति, १५-२० ।
२. योगसार, २२ ।
३. वही, ५९, ७६-८६ ।
४. वही, १०४, १०५ ।
५. ज्ञान दर्शन सम्पन्नात्मा चेको ध्रुवो मम । शेषा भावाश्च मे बाह्या सर्वे संयोग लक्षणाः ॥
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मैं
सारसमुच्चय : कुलभद्राचार्य, २४९ ।
६. तथा हि चेतनो संख्य प्रदेशो मूर्तिवर्जितः ।
शुद्धात्मा सिद्धरूपोऽस्मि ज्ञानदर्शनलक्षणः ॥ - तत्त्वानुशासन, १४७ ।
७. वही, १४८ - १८९ ।
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