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७० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
नियमसार के शुद्धोपयोग में कहा है कि निश्चय नय से आत्मा जन्म, जरा, मरण एवं उत्कृष्ट कर्मों से रहित, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्वभाववाली, क्षय, विनाश, छेद रहित, अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, अविचल, रूप है ।' समाधि-तन्त्र में भी पूज्यपादाचार्य ने कहा है कि शुद्धात्मा इन्द्रियातीत, अगोचर, स्वसंवेद्य, अनादि, संसिद्ध, निर्विकल्प एवं शब्दातीत है । जो परमात्मा है वही मैं हूँ, जो मैं हूँ वही परमात्मा है, मैं ही मेरे द्वारा उपासना योग्य हूँ, अपने में स्थित परमानन्द से परिपूर्ण हूँ । 3 मैं न नपुंसक हूँ, न स्त्री, न पुरुष हूँ, न एक, न दो हूँ, न बहुत हूँ, न गोरा हूँ, न मोटा हूँ और न दुर्बल हूँ ।४
आत्मानुशासन" में गुणभद्राचार्य ने निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मस्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि आत्मा ज्ञानस्वभाव, शुद्ध, सम्पूर्ण विषयों का ज्ञाता, अमूर्तिक है । 'मैं' मैं ही हूँ, अन्य शरीरादि मेरे नहीं हैं ।
अमितगति ने भी कुन्दकुन्दाचार्य की तरह शुद्धात्मा का वर्णन करते हुए आत्मा को ज्ञान दर्शन स्वरूप, रोगादि-रहित, अविनाशी, चैतन्य स्वरूप, अत्यन्त सूक्ष्म, अव्यय, अविनाशी, कर्ममल रहित, निर्मल बतलाया है । लघुसामायिक पाठ में भी इन्होंने उपर्युक्त रूप से आत्मा का स्वरूप बतलाया है ।
पद्मनन्दि मुनि ने भी निश्चयनय से आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है [ कि आत्मा चैतन्य स्वरूप, एक, निर्विकल्प, अखण्ड, अजन्मा, परमशान्तिरूप, सर्वोपाधि से रहित, आनन्दामृत का आस्वादी, अर्हन्त, जगन्नाथ, प्रभु, ईश्वर है, आत्मज्योति केवलज्ञान-दर्शन-सुख स्वभाव वाला एवं उत्कृष्ट है तत्त्व को देख लेने एवं जान लेने के बाद कुछ भी देखने-जानने को बाकी नहीं
इस आत्म
१. नियमसार, १७७, १७८ ।
२. समाधितन्त्र, श्लोक २४/५१, ४४ एवं ५९ ।
३. वही, ३१-२ |
४. वही, २३, ७०; परमात्मप्रकाश, ८० ।
५. आत्मानुशासन, ७४ ।
६. वही, २०२ ।
७. अमितगति : श्रावकाचार, श्लोक १४।८९ ।
८. यो दर्शनज्ञानसुखस्वभावः, समस्त संसार विकारबाह्यः ।
समाधिगम्यः परमात्म संज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्तां ॥
एका सदा शाश्वति को ममात्मा विनिर्मिता । सामायिकपाठ ( अमितगति )
१३, २६ ।
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