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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : ६९ अलिंग एवं पुद्गलाकार रहित है।' वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यवसाय, अनुभाग, योग, बंध, उदय, मार्गणा, स्थितिबंध, संकलेश स्थान, संयमलब्धि, जीवसमास आदि आत्मा के गुण नहीं हैं, आत्मा इन सबसे भिन्न है। नियमसार में भी कहा है कि आत्मा निर्ग्रन्थ, वीतराग, निःशल्य है। दोष, काम, क्रोध, मान, माया एवं भेद रहित है। इसी प्रकार आत्मा नारक, तियंच, नर एवं देव पर्यायों को धारण नहीं करता है, इसलिए वह इन पर्यायों का रूप भी नहीं है। परमात्मप्रकाश में भी इसी प्रकार शुद्धात्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि "न मैं मार्गणा स्थान हूँ, न गुणस्थान हूँ, न जीवसमास हूँ, न बालक, वृद्ध, युवा अवस्था रूप हूँ"।" इष्टोपदेश में भी यही कहा है। नियमसार की तात्पर्यबृत्ति टीका में कहा गया है-"समस्त कर्मों को त्याग कर निष्कर्म रूपी आत्मा में प्रवृत्त होते हुए मुनि ( ऋषिगण ) अशरण न हो कर ज्ञान-स्वरूप आत्मा में आचरण करते हैं और परम अमृत का अनुभव करते हैं । मैं (आत्मा) मन, वचन, काय और इन्द्रिय उत्पन्न इच्छाओं को, संसार रूपी समुद्र से उत्पन्न मोहरूप जलजन्तुओं को, सोना, स्त्री आदि को अनन्त विशुद्ध ध्यानमयी शक्ति से त्यागता हूँ।" इस कथन से स्पष्ट है कि आत्मा वैभाविक परिणाम नहीं है । परमात्मप्रकाश में कहा है-"जो केवलज्ञान स्वभाव, केवलदर्शन स्वभाव, अनन्तसुखमय, अनन्तवीयस्वभाव है, वह आत्मा है" ।' आत्मा कभी भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, परभाव को नहीं धारण करता है । मात्र सबको देखता एवं जानता है। आत्मा एक अर्थात् कर्मादि के संसर्ग से रहित अकेला है। शाश्वत, अविनाशी, नित्य, ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला एवं समस्त अन्तः बाह्य विभावों से रहित है।' इष्टोपदेश तथा नियमसार तात्पर्यवृत्ति में भी यही कहा गया है।१० १. समयसार, गा० ४१ । २. (अ) वही, गा० ५०-५ । (ब) नियमसार ३।३८-४६, ५।७८ एवं ८० । ३. वही, ३।४४, वही, ३।६८ । परमात्मप्रकाश, गा० ९० । ४. (अ) परमात्मप्रकाश गा० ९१ । (ब) नियमसार, ३१७९ ।। ५. परमात्मप्रकाश, गा० ९२ । ६. इष्टोपदेश, श्लोक २९ । ७. नियमसार, ३।९९ । ८. परमात्मप्रकाश ७५ एवं नियमसार ५।९६ । ९. नियमसार ५-६।१०२; परमात्मप्रकाश २२३ । १०. इष्टोपदेश, श्लोक २७; नियमसार तात्पर्यवृत्ति, १०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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