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दूसरा अध्याय
आत्म-स्वरूप-विमर्श (क) आत्मा का स्वरूप और उसका विवेचन : ____ न्याय-वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त दर्शन में जिसे 'आत्मा' और सांख्ययोग दर्शन में 'पुरुष' कहा गया है, वही तत्त्व जैन दर्शन में 'आत्मा' या 'जीव' कहलाता है । हम इस बात का उल्लेख कर आये हैं कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के मान्य आगमों में आत्मा शरीरादि से भिन्न चैतन्यस्वरूप तत्त्व है । कुन्दकुन्दाचार्य और उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने दो दृष्टियों से आत्मस्वरूप का विवेचन किया है-पारमार्थिक दृष्टिकोण और व्यावहारिक दृष्टिकोण । दृष्टिकोण को जैन-दर्शन में नय कहते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से नय दो प्रकार के होते हैं-निश्चय नय और व्यवहार नय ।' पारमार्थिक दृष्टि ही निश्चय नय है । कुन्दकुन्दाचार्य ने निश्चय नय को भूतार्थ अर्थात् वस्तु के शुद्धस्वरूप का ग्राहक और व्यवहार नय को अभूतार्थ अर्थात् वस्तु के अशुद्धस्वरूप का विवेचक कहा है। आत्मा के शुद्धस्वरूप का विवेचन शुद्ध निश्चय नय से और उसके अशुद्धस्वरूप का विवेचन व्यवहार नय तथा अशुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से किया गया है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ने अपनी कृतियों में भावात्मक और निषेधात्मक दोनों दृष्टियों से किया है। भावात्मक पद्धति में उन्होंने बताया कि आत्मा क्या है, और निषेधात्मक पद्धति में उन्होंने बतलाया कि बौद्ध दर्शन की भांति पुद्गल, उसकी पर्याय तथा अन्य द्रव्य आत्मा नहीं हैं। __शुद्धात्म-स्वरूप विवेचन-कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि निश्चय नय की अपेक्षा से शुद्धात्मा बंधविहीन, निरपेक्ष, स्वाश्रित, अचल, निसंग एवं ज्ञापक ज्योतिमात्र है। समयसार में कहा है कि निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है और न ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वरूप है, वह तो एकमात्र ज्ञायक है । आत्मा अनन्य, शुद्ध ( निष्कलंक ) एवं उपयोग स्वरूप है। रस, रूप और गन्धरहित, अव्यक्त, चैतन्यगुण युक्त, शब्द रहित, चक्षुरादि इन्द्रियों से अगोचर, १. देवसेन : नयचक्र, गा० १८३ २. समयसार, गा० ११ ३. वही, गा० १४-१५, ५६
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