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________________ ६६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार (ङ) मन के प्रेरक के रूप में : मल्लिषेण का कहना है कि नियत पदार्थों की ओर मन की प्रवृत्ति को देखकर सिद्ध होता है कि उसका प्रेरक कर्ता अवश्य ही उसी प्रकार होना चाहिए जैसे बालक की प्रेरणा से फेंकी गयी गेंद नियत स्थान पर पहुँचती है | अतः जो मन को प्रेरित करता है वही आत्मा है ।" (च) पर्याय द्वारा आत्मास्तित्व सिद्धि : मल्लिषेण ने सिद्ध करने के लिए एक यह भी तर्क दिया है कि जिस आदि पर्यायें मिट्टी द्रव्य की होती हैं उसी प्रकार चेतन, क्षेत्रज्ञ जीव, पुद्गल आदि पर्याय किसी द्रव्य की सूचक हैं । जो द्रव्य नहीं होता है, उसकी पर्यायें भी नहीं होती हैं, जैसे छठा भूत नहीं है । इसलिए उसकी पर्यायें भी नहीं होती हैं । अतः चेतनादि पर्यायों का जो द्रव्य है वही आत्मा है । आत्मा का अस्तित्व प्रकार घड़ा, कलश ९. गुणरत्न सूरि : गुणरत्न सूरि ने आत्मा की सत्ता सिद्ध करने के लिए जिन विशिष्ट तर्कों को अपनाया है वे निम्नांकित हैं (क) अजीव के प्रतिपक्षी के रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि : गुणरत्न सूरि ने इस तर्क द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि 'अजीत्र' शब्द का प्रतिपक्षी 'जीव' का अस्तित्व अवश्य है, क्योंकि अजीव शब्द व्युत्पत्ति सिद्ध और शुद्ध पद का प्रतिषेध करता है । जिस निषेधात्मक शब्द के द्वारा व्युत्पत्तिमान और शुद्ध पद का प्रतिषेध होता है उसका प्रतिपक्षी अवश्य होता है । जैसे 'अघट' रूप निषेधात्मक शब्द द्वारा व्युत्पत्तिमान एवं शुद्ध पद घट का निषेध किया गया है इसलिए अघट का प्रतिपक्षी घट अवश्य है । जिस निषेधात्मक शब्द का प्रतिपक्षी नहीं होता है वह व्युत्पत्ति सिद्ध शुद्ध पद का निषेध नहीं करता है । जैसे अखरविषाण तथा डित्थ । किन्तु अजीव निषेधवाची शब्द यौगिक तथा अखण्डजीव पद का निषेध करता है । इसलिए अजीव के प्रतिपक्षी जीव का अस्तित्व अवश्य है | 3 (ख) निषेध द्वारा आत्मास्तित्व-सिद्धि : 'आत्मा नहीं हैं' इस प्रकार आत्मा के निषेध से आत्मा का अस्तित्व होता है। क्योंकि निषेध भावी है । जिस प्रकार 'घट नहीं है' यह घट का निषेध अस्तित्व का अविना अन्यत्र घट के अस्तित्व के बिना हो सकता है, उसी प्रकार 'जीव नहीं है' इस प्रकार जीव के निषेध से १. स्याद्वादमञ्जरी, का० १७, पृ० १७४ २ . वही ३. षट्दर्शन समुच्चय टीका : गुणरत्नसूरि, का० ४०, पृ० २३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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