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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ६५
८. मल्लिषेण सूरि :
मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी में पहले के आचार्यों के अतिरिक्त निम्नांकित तकों द्वारा आत्मास्तित्व सिद्ध किया है :
(क) कर्ता के रूप में : मल्लिषेण ने रूपादि गुणों के कर्ता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि रूप आदि गुणों की उपलब्धि कर्ता पूर्वक ही सम्भव है क्योंकि 'उपलब्धि होना' क्रिया है, जो क्रिया होती है उसका कर्ता अवश्य होता है । जिस प्रकार काटने रूप क्रिया का कोई कर्ता अवश्य होता है उसी प्रकार देखने, जानने रूप क्रिया का भी कोई कर्ता होना चाहिए और जो इनका कर्ता है वही आत्मा है।' यह उल्लेख कर चुके हैं कि इन्द्रियाँ करण और अचेतन हैं इसलिए वे कर्ता नहीं हो सकती हैं। अतः कर्ता के रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
(ब) शरीर के मधिष्ठाता के रूप में आत्मास्तित्वा-सिद्धि : मल्लिषेण सूरि ने शरीर के अधिष्ठाता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि हित रूप साधनों का ग्रहण और अहित रूप साधनों का त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है क्योंकि वह विशिष्ट क्रिया है। जितनी विशिष्ट क्रियाएँ होती हैं, वे प्रयत्नपूर्वक ही होती हैं। उदाहरणार्थ जैसे रथ की चलने वाली विशिष्ट क्रिया सारथी के प्रयत्न से होती है, उसी प्रकार शरीर की व्यवस्थित या विशिष्ट क्रिया भी किसी के प्रयत्नपूर्वक होती है। जिसके प्रयत्न से यह क्रिया होती है वही आत्मा है। इस प्रकार शरीर रूप रथ के सारथी के रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है।
(ग) जिस प्रकार वायु की सहायता से चमड़े की धौंकनी को फूकने वाला कोई व्यक्ति होता है उसी प्रकार श्वासोच्छ्वास रूप वायु से शरीर रूपी धौंकनी को फूकने वाला भी कोई चैतन्य होना चाहिए और जो ऐसा है वही आत्मा है।
(घ) जिस प्रकार कठपुतलियों की की पलकों का खुलना और बन्द होना किसी व्यक्ति के अधीन होता है उसी प्रकार शरीर की इच्छा भी किसी के अधीन होनी चाहिए, जिसके अधीन निमेषोन्मेष रूप इच्छाएँ होती हैं वही आत्मा है। १. स्याद्वादमंजरी, कारिका १७, पृ० १७४ २. स्याद्वादमजरी का० १७, पृ० १७४ ३. वही : पृ० १७४ ४. वही
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