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६४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
(क) द्रव्य के रूप में आत्म-सत्ता-सिद्धि : शब्द, रूप और रसादि ज्ञान किसी आश्रयभूत द्रव्य में रहते हैं क्योंकि वे गुण हैं । जो गुण होते हैं वे अपने आश्रित द्रव्य में रहते हैं । जैसे रूपादि गुण घड़े के आश्रित रहते हैं । शब्दादि गुण जिस द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वही आत्मा है'। गुणरत्न सूरि ने भी यही कहा है ।
(ख) उपादान कारण के रूप में आत्म-सिद्धि : प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि ज्ञान, सुख आदि कार्यों का कोई उपादान कारण अवश्य है, क्योंकि ये कार्य हैं । जो कार्य होता है उसका उपादान कारण होता है । जैसे 'घट' कार्य होने से मिट्टी उसका उपादान कारण है। अतः ज्ञान, सुख आदि का जो उपादान कारण है, वही आत्मा है। गुणरत्न सुरि द्वारा रचित षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्न टीका में यह तर्क उपलब्ध होता है ।
(ग) शरीर के नियन्त्रक के रूप में आत्म-सिद्धि : प्रभाचन्द्राचार्य का कहना है कि जीवित शरीर किसी की प्रेरणा द्वारा संचालित होता है क्योंकि यह शरीर इच्छानुसार क्रिया करता है । जो इच्छानुसार क्रिया करता है उसका संचालन अवश्य होता है। जैसे रथ का संचालक रथी होता है, उसी प्रकार इस शरीर का जो संचालक है वही आत्मा है । गुणरत्लसरि ने भी इस तर्क का अनुसरण किया है । न्यायवैशेषिक दार्शनिकों ने भी यह तर्क दिया है।
(घ) इन्द्रियों के प्रेरक के रूप में मात्म-सिद्धि : प्रभाचन्द्र कहते हैं कि श्रोत्रादि इन्द्रियाँ करण हैं, अतः उनका कोई प्रेरक होना चाहिए, क्योंकि जो करण होते हैं, वे प्रेरित होकर ही अपना कार्य करते हैं। जैसे बसुला बढ़ई से प्रेरित होकर छेदनादि क्रिया करता है। श्रोत्रादि इन्द्रियाँ जिससे प्रेरित होकर कार्य करती है, वही आत्मा है। मल्लिषेण सूरि एवं गुणरत्न सूरि ने भी यही
कहा है।
१. (क) न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ३४८ । (ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ११२ २. षड्दर्शनसमुच्चय, टीका, पृ० ३२९ ३. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ६४९ ४. षड्दर्शनसमुच्चय, टीका, पृ० २२९ ५. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ३४९ ६. षड्दर्शनसमुच्चय, टीका, पृ० २२८ ७. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ११३ ८. (क) स्याद्वादमंजरी पृ० १७३ ।
(ख) षड्दर्शनसमुच्चय, टीका (गुणरत्नसूरि), पृ० २२८
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