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________________ ६२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार कि आत्मा चेतना का आधार है, इसलिए सदा स्थितिशील तत्त्व के रूप में उसकी सत्ता सिद्ध होती है । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि यही तत्त्व परलोक जाता है, इसलिए परलोकी के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध है। (क) स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से आत्मास्तित्व-सिद्धि : अहं प्रत्यक्ष (स्वसंवेदन प्रत्यक्ष) से आत्मास्तित्व-सिद्धि करते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि 'अहं' प्रत्यक्ष द्वारा हमें आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। स्वामी विद्यानन्द, वीरनन्दि, प्रभाचन्द्र, मल्लिषेण एवं गुणरत्न आदि आचार्यों ने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि जिस प्रकार 'सुख'-'दुःख' का स्व-संवेदन प्रत्यक्ष द्वारा अस्तित्व सिद्ध होता है उसी प्रकार 'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुःखी हूँ' इत्यादि वाक्यों में 'मैं' प्रत्यक्ष के द्वारा अतीन्द्रिय आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध होती है । 'मैं हूँ' यह ज्ञान भ्रान्त नहीं है और न इससे शरीरादि का बोध होता है । हरिभद्र का कहना है कि आत्मा के द्वारा आत्मा को जानना अनुभव सिद्ध है और आत्मा का ही स्वभाव है। इस प्रकार 'मैं' विषयक प्रत्यक्ष अनुभव से स्वयं ज्योति स्वरूप आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । ५. आचार्य विद्यानन्द : (क) गौण कल्पना से आत्मास्तित्व-बोध : आचार्य विद्यानन्द ने आत्मा को सत्ता सिद्ध करने के लिए एक यह भी तर्क दिया है कि चित्र देखकर पुरुष कहता है कि यह सजीव चित्र है । यद्यपि चित्र अजीव है लेकिन उसमें जीव की गोण कल्पना की गयी है। यदि जीव का अस्तित्व न होता तो यह चित्र सजीव है ऐसा कथन नहीं होना चाहिए। इस प्रकार की गौण कल्पनाओं से सिद्ध है कि कोई सजीव पदार्थ है, और जो सजीव पदार्थ है वही आत्मा है ।" १. एवं चैतन्यवानात्म सिद्धः सततभावतः । परलोक्यपि विज्ञेयो...... । ""शास्त्रवार्तासमुच्चय, ११७८ २. अस्त्मेयेव दर्शनं स्पष्टदहंप्रत्ययवेदनात् ।-वही १७९ ३. (क) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, उत्थानिका, कारिका १०२ । (ख) तत्त्वसंसिद्धिः श्लोक १३,१९ एवं ३० । (ग) न्याय कुमुद चंद, पृ० ३४३ । (घ) प्रमेयकमलमार्तण्ड: पृ० ११२ । (ड) स्याद्वाद-मंजरी कारिका १७, पृ० २३२ (च) षड्दर्शन समुच्चय टीका सूरि, पृ० २०२-२२१ ४. शास्त्रवार्तासमुच्चय, कारिका १५८०-८७ ५. सत्यशासन परीक्षा, पृ० १४ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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