________________
भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ६१
करने वाला लुहार होता है । इसी प्रकार इन्द्रिय और विषय में आदान-आदेय सम्बन्ध होने से उनके आदाता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है।
(ङ) शरीरादि के भोक्ता रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि : शरीरादि के रूप आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए जिनभद्रगणि ने कहा कि जिस प्रकार भोजन एवं वस्त्रादि पदार्थ योग्य होने से पुरुष उनका भोक्ता होता है, उसी प्रकार देहादि भोजनादि की तरह योग्य होने से इनका कोई भोक्ता अवश्य होना चाहिए क्योंकि भोग्य पदार्थ स्वयं अपने भोक्ता नहीं होते हैं । अतः देहादि का जो भोक्ता है, वही आत्मा है । विद्यानन्द एवं गुणरत्न सूरि ने भी इस तर्क द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध की है।
(च) देहादि संबातों के स्वामी के रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि : आचार्य जिनभद्रगणि ने सांख्य दार्शनिकों की तरह यह भी एक तर्क दिया है कि शरीरादि का कोई स्वामी अवश्य होना चाहिए क्योंकि ये संघात रूप होता है, उसका कोई स्वामी अवश्य होता है । जैसे मकान संघात रूप है इसलिए गृहपति उसका स्वामी होता है । इसी प्रकार देहादि संघात रूप वस्तुओं के विद्यमान होने से उनके स्वामी का अनुमान होता है । जो इनका स्वामी है, वही आत्मा है।
(छ) व्युत्पत्तिमूलक हेतु द्वारा आत्मास्तित्व-सिद्धि : जिनभद्रगणि ने व्युत्पत्ति मूलक हेतु के द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा है कि 'जीव' पद 'घट' पद के समान व्युत्पत्ति युक्त शुद्ध पद होने के कारण सार्थक होना चाहिए । जो पद सार्थक नहीं होता है वह व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद भी नहीं होता है। उदाहरणार्थ डिस्थ, खरविषाणादि सार्थक न होने से व्युत्पत्ति युक्त शुद्ध पद भी नहीं है । जीव पद व्युत्पत्तितया शुद्ध है, अतः उसका अर्थ अवश्य होना चाहिए । जीव पद का अर्थ शरीरादि से भिन्न जन्तु, प्राणी, सत्त्व, आत्मा आदि है । अतः सिद्ध है कि आत्मा की सत्ता है। आचार्य विद्यानन्द एवं मल्लिषेण ने भी जोव शब्द के वाच्य के रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है।
४. हरिभद्राचार्य : हरिभद्राचार्य ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में भूत चैतन्यवाद का खण्डन करके आत्मा को सत्ता युक्तियों द्वारा सिद्ध की है। उनका तर्क है
१. विशेषावश्यक, गा० १५६८ २. वही, गाथा १५६९ ३. षड्दर्शनसमुच्चय, टोका , पृ० २२९ ४. विशेषावश्यक भाष्य, गा० १५६९ ५. विशेषावश्यक गा० १५७१-७५ ६. सत्यशासन परीक्षा, पृ० १५। (ख) स्याद्वादमंजरी, कारिका १७ पृ० १७४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org