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________________ ६० : जैनदर्शन में आत्म-विचार (ख) इन्द्रियों के अधिष्ठाता के रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि : न्यायवैशेषिकादि भारतीय दार्शनिकों की तरह जिनभद्रगण ने इन्द्रियों के अधिष्ठाता के रूप में आत्मा की सत्ता सिदध करते हुए कहा है कि इन्द्रियाँ करण हैं, इसलिए इनका कोई अधिष्ठाता उसी प्रकार होना चाहिए जैसे दंडादि करणों का अधिष्ठाता कुम्भकार होता है । जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं होता है, आकाश की तरह वह करण भी नहीं होता है। इन्द्रियाँ करण हैं अतः उनका जो अधिष्ठाता है वही आत्मा है । प्रभाचन्द्राचार्य एवं गुणरत्न सूरि ने भी इन्द्रियों को बसुला आदि की तरह करण मान कर उनके प्रेरक के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध की है। (ग) शरीर के कर्ता के रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि : जिमभद्रगणि ने शरीर के कर्ता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि विद्यमान शरीर घड़े की तरह सादि एवं नियत आकार वाला है, अतः घड़े के कर्ता की तरह देह का कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए । जिसका कोई कर्ता नहीं होता है उसका कोई सादि एवं निश्चित आकार भी नहीं होता है, जैसे बादल है । बादल सादि एवं निश्चित आकार वाला नहीं है इसलिए उसका कोई कर्ता भी नहीं है । शरीर के नियत आकारवान् एवं सादि होने से सिद्ध है कि इसका कोई बनाने वाला है और जो इस शरीर का कर्ता है वही आत्मा है । मल्लिषण ने स्याद्वादमंजरी में और षड्दर्शनसमुच्चय में गुणरत्न सूरि ने भी आत्मा की सत्ता सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया है। (घ) आदाता के रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि : जिनभद्रगणि ने आत्मा को सिद्धि के लिए एक यह भी तर्क दिया है कि इन्द्रिय और विषयों में ग्राहक-ग्राह्य (आदान-आदेय) भाव सम्बन्ध है, इनका कोई ग्रहण करने वाला भी होना चाहिए क्योंकि जहां आदान-आदेय भाव होता है वहां उसका आदाता भी होता है जैसे उदाहाणार्थ संडसो और लोहे में आदान-आदेय सम्बन्ध है और उसको ग्रहण (ख) स्याद्वादमञ्जरी कारिका १७, पृ० १७४ (ग) न्यायकुमुदचन्द्र : पृ० ३४९ १. विशेषावष्यक भाष्य, गा० १५६७ २. (क) न्यायकुमुदचन्द्र, प० ३४९ । (ख) प्रमेयकमल मार्तण्ड : प्रभाचन्द्र, पृ० ११३ । (ग) षड्दर्शनसमुच्चय, टीका : गुणरत्न, पृ० २।२८ ३. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १५६७ ४. (क) स्याद्वादमंजरी का० ११, पृ० १७४ । (क) षड्दर्शनसमुच्चय, पृष्ठ २२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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