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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ५९
(झ) अकलंक देव ने पूर्वभव तथा जाति आदि के स्मरण से आत्मा की सत्ता सिद्ध की है । राक्षस, व्यन्तर, आदि अनेक जीव पूर्व जन्म की घटनाएँ सुनाया करते हैं । पूर्वभव की स्मृति संस्कार पूर्वक होती है, अतः पूर्वभव के स्मरण से दोनों जन्म में रहने वाले धारणा ज्ञान के धारक के रूप में चैतन्यवान् आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है ' । अनन्तवीर्य के प्रमेयरत्नमाला में भी इसी युक्ति से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया गया है। इस प्रकार अकलंक ने विभिन्न युक्तियों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है ।
३. आचार्य जिनभद्रगणि श्रमण :
आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य में निम्नांकित अनुमान प्रमाण द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध की है ।
(क) गुणों के आधार के रूप में आत्म-सिद्धि : जिनभद्रगणि ने स्मरणादि विज्ञान रूप गुणों के आधार पर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा है कि आत्मा का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि उसके स्मरणादि विज्ञान रूप गुणों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है । जिस गुणी के गुणों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है उसका भी प्रत्यक्ष होता है । जैसे घट रूप गुण के रूपादि गुणों के प्रत्यक्ष अनुभव होने से घट का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, उसी प्रकार आत्मा के गुण ज्ञानादि का प्रत्यक्ष अनुभव होने से आत्मा का भी प्रत्यक्ष अनुभव होना मानना चाहिए । यदि गुण और गुणी को भिन्न मानने वाले ज्ञान गुण से आत्मा रूप गुण की सत्ता स्वीकार न करें तो रूपादि गुणों का आधार घटादि पदार्थों की भी सत्ता नहीं माननी चाहिए । अतः स्मरणादि गुणों द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है । षट्दर्शनसमुच्चय की टीका में गुणरत्न सूरि ने भी ज्ञान गुण के द्वारा आत्म-द्रव्य को सत्ता सिद्ध की है । इनका कहना है कि जिस प्रकार रूपादि गुण अपने द्रव्य के आश्रित रहते हैं उसी प्रकार ज्ञान गुण का भी कोई आश्रित द्रव्य होना चाहिए, क्योंकि गुण बिना द्रव्य के नहीं रह सकता है । अतः ज्ञान गुण जिस द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वही आत्मा है । अमृतचन्द्र सूरि, मल्लि - षेण सूरि, प्रभाचन्द्राचार्य आदि आचार्यों ने भी ज्ञान को आत्मा का असाधारण गुण मान कर उसके गुणी के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध की है" ।
१. न्यायविनिश्चय : लघीयस्त्रय, २।२४९
२. प्रमेयरत्नमाला : अनन्तवीर्य, पृ० २९६
३. विशेषावश्यक भाष्य : गणधरवाद, गा० १५५८-६०
४. षट्दर्शनसमुच्चय टीका, पृ० २३०
५. समयसार, आत्मख्याति टीका, परिशिष्ट :
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: पृ० ५५४-५५५
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