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________________ ५८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार होता है, इसलिए सिद्ध है कि आत्मा की सत्ता है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यक भाष्य में संशय द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध करके भट्टाकलंकदेव का अनुकरण किया है । उनका कहना है कि "जीव है या नहीं" यह संशयज्ञान है, और ज्ञान ही जीव है, अतः सशयज्ञान से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । जिनभद्रगणि ने इस विषय में दूसरा तर्क यह दिया है कि संशय करने वाला कोई चेतन पदार्थ ही हो सकता है । इस प्रकार संशय करने वाले के रूप में संशयी आत्मा की सत्ता सिद्ध हो जाती है । (च) अकलंकदेव का कहना है कि 'आत्मा है' यह ज्ञान अनध्यवसाय नहीं हो सकता है; क्योंकि अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है । इस ज्ञान को विपर्यय मानने से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है; क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थ का विपर्यय ज्ञान नहीं होता है । इस प्रकार आत्मा की सत्ता सिद्ध है । (छ) भट्टाकलंकदेव ने कहा है कि किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति अचानक राग-द्वेष की प्रवृत्ति के होने से सिद्ध है कि पहले उस वस्तु के द्वारा सुख-दुःख का अनुभव हुआ था । अतः रागादि की प्रवृत्ति से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । (ज) आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करते हुए अकलंकदेव ने न्यायविनिश्चय में एक यह भी युक्ति दी हैं कि तत्काल उत्पन्न शिशु की माँ के स्तनपान करने की अभिलाषा पूर्वानुभव पूर्वक ही सम्भव है । अतः ऐसे पदार्थ की सत्ता अवश्य है जिसमें पूर्वानुभव के संस्कार विद्यमान रहते हैं और जो चैतन्यवान् है । अनन्तवीर्य ने भी प्रमेयरत्नमाला में तदहर्जात शिशु के दुग्धपान की अभिलाषा से आत्मा की सत्ता सिद्ध की है । धर्मशर्माभ्युदय में हरिश्चन्द्र कवि ने कहा है कि तुरन्त उत्पन्न बालक के माँ का स्तनपान करने का कारण पूर्वभव के संस्कार के अलावा अन्य नहीं है । इसलिए यह जीव नया उत्पन्न नहीं होता है । इस पूर्व जन्म के संस्कार के आधार स्वरूप आत्मा का अस्तित्व अवश्य है, जिसका पुनर्जन्म होता है । १. विशेषावश्यक भाष्य; गणधरवाद, गा० १५५६ २. वही, गा० १५५४ ३. वही, गा० १५५७ ४. तत्त्वार्थवार्तिकः भट्ट, २८ २०, पृ० १२३ ५. न्यायविनिश्चय : लघीयस्त्रय, पृ० ६४ ६. वही, २।२५०-५१ ७. धर्मशर्माभ्युदय, ४ ६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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