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________________ भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ५७ (ग) इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आत्मा का प्रत्यक्ष न होने से उसका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन्द्रिय प्रत्यक्ष जैन दर्शन में परोक्ष माना गया है' । घटादि परोक्ष हैं क्योंकि अग्राहक निमित्त कारणों से धूप से अनुमित अग्नि की तरह ग्राह्य होते हैं । इन्द्रियाँ अग्राहक हैं क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर स्मृति उत्पन्न होती है । जिस प्रकार खिड़की के नष्ट हो जाने पर उसके द्वारा देखने वाला विद्यमान रहता है उसी प्रकार इन्द्रियों से देखने वाले आत्मा की सत्ता रहती है । एक प्रश्न के उत्तर में अकलंकदेव का कहना है कि यदि बौद्ध विज्ञान को स्वसंवेदन तथा योगियों के प्रत्यक्ष मानते हैं तो स्वसंवेदन तथा योगियों के प्रत्यक्ष मानना चाहिए । आत्मा को भी (घ) संकलनात्मक ज्ञान से आत्मास्तित्व- सिद्धि : अकलंकदेवभट्ट ने अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह इन्द्रिय संकलनात्मक ज्ञान द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है। उनका कथन है कि इन्द्रिय और उनसे उत्पन्न ज्ञानों में 'जो मैं देखता हूँ वही मैं चखता हूँ' एकत्वविषयक फल नहीं पाया जाता है । लेकिन इस प्रकार का एकत्व विषयक ज्ञान होता है । अतः सभी इन्द्रियों द्वारा जाने गये विषयों एवं ज्ञानों में एकसूत्रता देखने वाले ग्रहीता ( के रूप में) आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है । आत्मस्वभाव के होने पर ही ज्ञान और विषयों की प्राप्ति होती है । इन्द्रियों से ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि वे अचेतन एवं क्षणिक हैं, अतः इन्द्रियों से भिन्न कल ज्ञान और विषय को ग्रहण करने वाला कोई होना चाहिए और जो ऐसा है वही आत्मा है । मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी में भी संकलनात्मक ज्ञान के द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध की है । (ङ) संशय द्वारा आत्मास्तित्व-सिद्धि : भट्टाकलंकदेव ने संशय द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि "आत्मा है" इस प्रकार का होने वाला ज्ञान यदि संशय रूप है तो आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है, क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता है । जिसका अस्तित्व नहीं है उसके विषय में संशय होने का प्रश्न ही नहीं होता है । अनात्मवादियों को आत्मा के विषय में संशय १. जं पइदो विण्णाणं तं तु परोक्खत्ति । प्रवचनसार गा० ५८ २. तत्त्वार्थवार्तिक, २ ८ १८, पृ० १२२ ३. वही ४. ततो व्यतिरिक्तेन केनचिद्भवितव्यमिति गृहीतृसिद्धिः । तत्त्वार्थवार्तिक २८१९, पृ० १२२ ५. स्याद्वादमंजरी, कारिका १७, पृ० १७३ ६. तत्त्वार्थवार्तिक, २८ २०, पृ० १२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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