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५६ : जैन दर्शन में आत्म-विचार
नहीं है इसलिए मेंढक की चोटी की तरह आत्मा का अभाव है, ठीक नहीं है । क्योंकि उनका हेतु असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक दोष से दूषित है।' (अ) 'अकारणत्वात्' हेतु असिद्ध इसलिए है कि इससे आत्मा का अभाव सिद्ध नहीं होता है। नर-नारकादि पर्यायों से पृथक् आत्मा नहीं मिलता है और इन पर्यायों की उत्पत्ति मिथ्या दर्शनादि कारणों से होती है । अतः आत्मा की सत्ता असिद्ध नहीं है । पर्यायों से भिन्न आत्मद्रव्य की सत्ता (सम्भव) नहीं है इसलिए प्रतिपक्षी का 'अकारणत्वात्' हेतु आश्रयासिद्ध दोष से भी दूषित है ।२ (आ) 'अकारणत्वात् हेतु विरुद्ध दोष से दूषित है क्योंकि यह हेतु आत्मा का अभाव सिद्ध न करके उसका सद्भाव सिद्ध करता है, सभी घटादि पदार्थ स्वभाव से ही सत् है, किसी कारण विशेष से नहीं । जो सत् होता है वह अकारण ही होता है । कुन्दकुन्दाचार्य ने भी सत् को उत्पादादि रहित कहा है। जो स्वयं सत् है वह नित्य ही (नित्यवृत्ति) है । उसे अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य कारण की आवश्यकता नहीं होती है। इसके विपरीत कारण जन्य कार्य असत् ही होता है । (इ) 'अकारणत्वात्' हेतु अनैकान्तिक दोष से भी दूषित है । क्योंकि 'मण्डूक-शिखण्ड' भी नास्ति इस प्रत्यय के होने से सत् तो है लेकिन उसके उत्पादक कारण नहीं हैं। इसके अतिरिक्त प्रतिपक्षियों द्वारा दिया गया उदाहरण 'मण्डूक-शिखण्ड' दृष्टान्ताभास से दूषित भी है ।
(ख) सकल प्रत्यक्ष से आत्मास्तित्व-सिद्धि : आचार्य अकलंकदेवभट्ट आत्मवादियों से कहते हैं कि आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होने से उसका अभाव है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय निरपेक्ष आत्मजन्य केवल ज्ञान रूप सकल प्रत्यक्ष के द्वारा शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है, और देश प्रत्यक्ष अवधि और मनःपर्याय ज्ञान के द्वारा कर्म-नोकर्म संयुक्त अशुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है ।
१. तत्त्वार्थवार्तिक : अकलंकदेव, २।८।१८, पृ० १२१ २. वही, २।८।१८, पृ० १२१ ३. पंचास्तिकाय, गा० १५ । और भी देखें-प्रवचनसार, गाथा १० एवं ९८
की तात्पर्यवृत्ति टीका : ४. तत्त्वार्थवार्तिक, २।८।१८, १० १२१ ५. (क) जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पक्चक्खं-प्रचनसार,
_गाथा ५८
(ख) सर्वद्रव्यपर्यायविषयं सकलम् । न्यायदीपिका, पु० ३६ ६. वही ७. तत्त्वार्थवार्तिक २।८।१८, पृ० १२३
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