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भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ५५
सिद्ध होता है। इसी प्रकार दिगम्बर आम्नाय के षट्खंडागम में आत्मा का विवेचन तो किया गया है किन्तु उसकी सत्ता सिद्ध करने वाले स्वतंत्र तर्कों का प्रयोग नहीं हुआ। कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार, नियमसार प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय प्रमुख आध्यात्मिक ग्रन्थों में आत्मा के स्वरूप का विवेचन प्रचुर मात्रा में हुआ है। कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र में आत्मा का सामान्य विवेचन उपलब्ध होता है । स्वामी समन्तभद्र-सिद्धसेन से तार्किक युग प्रारम्भ होता है। पूज्यपाद, अकलंकदेव भट्ट, विद्यानन्द, हरिभद्र, जिनभद्रगणि, प्रभाचन्द्र, मल्लिषेण और गुणरत्न आदि जैन दार्शनिकों ने आत्मास्तित्वसिद्धि को महत्त्वपूर्ण मानकर विभिन्न युक्तियों से उसकी सत्ता सिद्ध की है। यहाँ कुछ प्रमुख आचार्यों के आत्मसाधक तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं । १. पूज्यपादाचार्य:
प्राणापान कार्य द्वारा आत्म-अस्तित्व का बोष : पूज्यपादाचार्य ने सर्वार्थसिद्धि में आत्मा की सत्ता सिद्ध करते हुए कहा है कि श्वासोच्छ्वास रूप कार्य से क्रियावान् आत्मा का अस्तित्व उसी प्रकार सिद्ध है जिस प्रकार यन्त्रमूर्ति की चेष्टाओं से उसके प्रयोक्ता का अस्तित्व सिद्ध होता है।' अकलंकदेवभट्ट ने तत्त्वार्थवार्तिक में पूज्यपादाचार्य के इस तर्क को संवर्धित करते हुए कहा है कि श्वासोच्छ्वास रूपी क्रियाएं बिना कारण के नहीं होती है, क्योंकि ये क्रियाएँ नियमपूर्वक होती हैं। विज्ञानादि अमूर्त हैं इसलिए उनमें प्रेरणा शक्ति का अभाव होता है, अतः वे इन क्रियाओं के कारण नहीं हो सकते है । अकलंकदेव ने यह भी कहा कि रूपस्कन्ध के द्वारा भी क्रियाएँ नहीं हो सकती है क्योंकि रूप स्कन्ध अचेतन है। अतः सिद्ध है कि श्वासोच्छ्वास रूप कार्य का जो कर्ता है, वही आत्मा है ।२ स्याद्वादमंजरी में मल्लिषेण ने भी प्राणापान की क्रिया से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है। २. अकलंकदेवभट्ट :
अकलंकदेवभट्ट ने तत्त्वार्थवार्तिक' में आत्मास्तित्व-सिद्धि निम्नांकित तों द्वारा की है :
(क) बाधक-प्रमाण के अभाव से आत्मास्तित्व-सिद्धि : अकलंकदेव का कहना है कि अनात्मवादियों का यह तर्क कि आत्मा के उत्पादक कोई कारण
१. सर्वार्थसिद्धि, ५।१९, पृ० २८८ २. तत्त्वार्थवार्तिक, ५।१९।३८, पृ० ४७३ ३° स्याद्वादमंजरी, का० १७, १० १७४ ४. तत्त्वार्थवार्तिक, २।८।१८-२०, पृ० १२१-२३
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