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५४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
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की सत्ता न मानी जाए तो किसी भी ज्ञेय विषय का ज्ञान न हो सकेगा । अत: अनुभवकर्ता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है । दूसरी बात यह है कि सभी को अपनी (आत्मा की सत्ता में विश्वास है । कोई यह नहीं कहता है कि मेरी सत्ता नहीं है । अतः आत्मसत्ता की प्रतीति सभी को होती है । २
ब्रह्मसूत्र के दूसरे अध्याय में शंकराचार्य का कहना है कि आत्मा प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति इन समस्त व्यवहारों का आश्रय है । जिसके आश्रय में प्रमाण है वह प्रमाण के द्वारा किस प्रकार सिद्ध हो सकता है । अतः आत्मा स्वयंसिद्ध है । 3 सुरेश्वराचार्य ने भी यही कहा है ।
आत्मास्तित्व का निराकरण भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि आगन्तुक वस्तु का ही निराकरण किया जा सकता है, स्वरूप का नहीं । जैसे अग्नि के उष्णत्व का निराकरण अग्नि द्वारा नहीं हो सकता है उसी प्रकार आत्मा का निषेध आत्मा के द्वारा नहीं किया जा सकता हैं । अतः निषेध करने वाले के रूप में भी आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है ।" अद्वैत वेदान्त आत्मास्तित्व सिद्धि के लिए प्रत्यक्षादि प्रमाण का आधार नहीं लेता है । रामानुज अहंप्रत्यय द्वारा इसकी सत्ता सिद्ध करते हैं ।
(छ) जैनदर्शन में आत्मसिद्धि :
जैन दर्शन में आत्मा की सत्ता प्रत्यक्ष और अनुमानादि सबल और अकाट्य प्रमाणों द्वारा सिद्ध की गयी है । श्वेताम्बर - आगम आचारांगादि में यद्यपि तर्क मूलक स्वतन्त्र रूप से आत्मास्तित्व साधक युक्तियाँ नहीं हैं फिर भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनसे आत्मास्तित्व पर प्रकाश पड़ता है । उदाहरण के तौर पर आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में कहा गया है 'जो भवान्तर में दिशाविदिशा में घूमता रहा, वह मैं हूँ ।" यहाँ पर 'मैं' पद से आत्मा का अस्तित्व
१. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य, २१३१७, पृ० ५४२
२. सर्वो ह्यात्मास्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति । वही, १. १. १, पृ० २६ ३. आत्मा तु प्रमाणादिव्यवहाराश्रयत्वात् प्रागेव प्रमाणादिव्यवहारात्सिध्यति । - वही, २. ३. ७, पृ० ५४२
४. भारतीय दर्शन : संपादक डा० न० कि० देवराज, पृ०
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५. न चेदृशस्य निराकरणं संभवति । आगन्तुकं हि वस्तु निराक्रियते न स्वरूपम् । य एव निराकर्ता तदेव तस्य स्वरूपं ।। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, २।३।७
६. तस्मात् स्वत एव प्रत्यागात्मा, न इप्तिमात्रम् । अहंभावविगमे ......।
ब्रह्मसूत्र श्रीभाष्य १।१।१
७. आचारांग सूत्र, १।१।१।४
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